Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
View full book text
________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६/१०७
का साक्षात्कार है... अनन्त सिद्धों का साक्षात्कार है... आत्मा का साक्षात्कार है... धन्य है वह दशा !
-
अहा ! शुद्धज्ञान स्वरूप के अनुभव से भरा हुआ महावीर का जीवन कितना सुन्दर है, वह सदा वर्द्धमान है - आत्मसाधना में वृद्धिस्वरूप है। न ललचाये वे संसार के किसी वैभव से और ना ही डरे वे जगत की किसी प्रतिकूलता से । हाँ, वे ललचाये अवश्य – चैतन्य के अतीन्द्रिय आनन्द के स्वाद में; और डरे इस असार-संसार में भवभ्रमण से... तथापि वे वीर थे; सामान्य वीर नहीं किन्तु महावीर थे। आत्मा की वीतरागी वीरता द्वारा कषाय शत्रुओं को जीतने वाले वे 'विजेता' थे, जिन थे । केवलज्ञान प्राप्त करके जब वे धर्म गर्जना करेंगे, तब उनकी हुँकार सुनकर गौतम इन्द्रभूति और श्रेणिक जैसे अनेक भव्यात्मा चौंक उठेंगे।
अहा ! उन वीर योगिराज की वीतरागी वीरता के सामने बड़े-बड़े सम्राटों का मस्तक भी झुक जाता था। उनकी वीरता किसी दूसरे को दुःख देने के लिये नहीं थी, वह वीरता तो अहिंसक थी.... निर्विकार थी। जगत में तो वीर योद्धा कहलाने वाले अनेक जीव सुन्दर स्त्रियों के कटाक्ष मात्र से विह्वल होकर पराजित हो जाते हैं, अथवा अपमान के एक कटु शब्द का प्रहार होते ही क्रोधित होकर हारकर क्षमाभाव को खो बैठते हैं । वाह, तुम्हारी वीरता ! देख ली तुम्हारी बहादुरी !! ऐसे तुच्छ आक्रमण से ही रो पड़े... तब मोह के सामने महायुद्ध में कैसे खड़े रहोगे ? अरे, मोह से लड़ना और मोक्ष का राज्य प्राप्त करना वह तो वीतरागी वीरों का काम है... कायरों का नहीं । - ऐसी वीरता देखना हो तो देख लो, सामने खड़े हुए इन महावीर को ! वे इसी समय उग्र पराक्रम पूर्वक मोह से लड़कर, उसका सर्वनाश करके ( सत्तानाश - सत्यानाश करके) अपनी क्षायिक विभूति से भरपूर केवलज्ञान - साम्राज्य जीत लेंगे। धन्य है उनकी वीरता ।
आत्मा के सहज स्वरूप को धारण करने वाले वे मुमुक्षु वीर जानते थे कि मैं किसी दूसरे का नहीं हूँ और जगत में अपने चैतन्य के सिवा दूसरा कुछ भी मेरा नहीं है। अपने आत्मीय चैतन्य स्वरूप शुद्ध द्रव्य, शुद्ध गुण और शुद्ध पर्याय, वह मेरा स्व है। मैं अपने शुद्ध द्रव्य-गुण- पर्यायरूप स्ववस्तु में ही निवास करता हूँ, वह मेरा स्वकीय परिवार है; उसी का मैं स्वामी हूँ और वही मेरा स्व है । इसप्रकार शुद्ध द्रव्य-गुण- पर्याय में अपने को तन्मय अनुभवते हुए वे वन-जंगल के बीच