Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 107
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१०५ 'सन्मतिनाथ' नाम मुनिवरों ने दिया; ‘महावीर' नाम संगमदेव ने दिया, और 'अतिवीर' नाम रुद्र ने दिया। प्रभु के सान्निध्य में रुद्र रौद्रता छोड़कर पुन: धर्म में स्थित हुआ और क्षमायाचना पूर्वक स्तुति की - श्री वीर महा अतिवीर सन्मतिनायक हो। जय वर्द्धमान गुणधीर सन्मति दायक हो। पंच-मंगल नामधारी प्रभु का चित्त तो पंचमगति की साधना हेतु पंचमभाव में ही लगा था। अहा, बचपन में भी जिनके अद्भुत शौर्य के समक्ष सर्प भी शरण में आ गया था तो मुनिदशा में विद्यमान उन तीर्थंकर देव की परम शान्त गम्भीर मुद्रा के समक्ष चण्डकोश जैसे विषधर नाग भी सहम जायें, उसमें क्या आश्चर्य है ? वीरनाथ की वीतरागी शान्ति के समक्ष चण्डकोश का प्रचण्ड आक्रोश कैसे टिक सकता था ? अरे, सामान्य लब्धिधारी मुनिराज के समक्ष भी जब क्रूर पशु अपनी क्रूरता को छोड़कर शान्त हो जाते हैं, तब फिर यह तो तीर्थंकर-मुनिराज वर्द्धमान हैं, उनकी आश्चर्यजनक लब्धियों एवं शान्ति के प्रभाव की तो बात ही क्या ? जिनके पास क्रूर से क्रूर जीव भी ऐसे शान्त हो जाते हैं कि दूसरे जीवों का घात भी नहीं करते, सिंह हिरन को नहीं मारता, नेवला सर्प को नहीं छेड़ता, तो फिर उन्हें स्वयं को सर्प डसे या कोई कानों में कीलें ठोक दे - यह बात ही कहाँ रही? दूसरों की बात और है, परन्तु यह तो तीर्थंकर महात्मा हैं, उनके ऐसा कुयोग कभी नहीं बनता। जैनधर्म का कर्म सिद्धान्त भी ऐसे अशुभ कर्मों का उदय स्वीकार नहीं करता है; जैनधर्म की विशेषता तो यह है कि प्रभु की सच्ची पहिचान उनके चेतनभावों द्वारा ही होती है, उदयभावों द्वारा नहीं। जान लो, इस महावीर जीवन को ! और प्राप्त कर लो सम्यक्त्व एकाकी विचरते हुए जिनकल्पी तीर्थंकर मुनिराज महावीर एकमात्र निजस्वभाव के आश्रय से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग में परिणमते थे। वे जानते थे कि वर्तमान में यह मेरा आत्मा स्वयं अकेला ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रभाव रूप होता हुआ अपने मोक्ष का कर्ता होता है और भूतकाल में जब सम्यक्त्वादि रूप परिणमित न होकर, अज्ञान से उन मिथ्यात्वादि भावोंरूप परिणमित होता था तब भी वह स्वयं ही अपने संसार का कर्ता होता था। इसप्रकार संसार और मोक्ष दोनों

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