Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 105
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१०३ अहा ! तीर्थंकर के आत्मा जैसा सर्वोत्तम आश्चर्य जहाँ विद्यमान हो वहाँ जगत के अन्य छोटे-मोटे आश्चर्य आयें वह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अत: मोक्ष की साधना में ही जिनका चित्त लगा है, ऐसे उन महात्मा को वे पाँच आश्चर्यकारी घटनाएँ किंचित् आश्चर्यचकित नहीं कर सकीं। अहा ! आश्चर्यकारी चैतन्यतत्त्व की साधना में लीन मुमुक्षु को जगत की कौनसी वस्तु आश्चर्य में डाल सकेगी ? उन मोक्षसाधक महात्मा का जितना वर्णन करें, उतना ही कम है। हे भव्यजनो! संक्षेप में समझ लो कि मोक्षसाधना हेतु जितने भी गुण आवश्यक हैं, उन सर्वगुणों का वहाँ संग्रह था और मोक्षसाधना में विघ्न करने वाले जितने भी दोष हैं उन समस्त दोषों को प्रभु ने छोड़ दिया था। धन्य प्रभु की मोक्ष साधना ! उनकी साधना ऐसी उग्र थी मानों वे स्वयं ही मोक्षतत्त्व थे। उज्जयिनी में रुद्र का उपसर्ग और 'अतिवीर' नाम द्वारा स्तुति अहा ! अनेक लब्धियाँ प्रगट होने पर भी, प्रतिक्षण स्वानुभूति द्वारा अनन्त आत्मलब्धियों का साक्षात्कार करते हुए उन वीतरागी साधक का अन्य किन्हीं लब्धियों के प्रति लक्ष्य ही नहीं था। विचरते-विचरते वे योगिराज उज्जयिनी नगरी में पधारे और क्षिप्रावती नदी के किनारे अतिमुक्तक नाम के भयानक श्मशान में ध्यान लगाकर खड़े हो गये। परमशान्त...अडोल...अहा, जीवन्त वीतरागप्रतिमा ! वे प्रभु श्मशान में खड़े होने पर भी अपने आत्म-उद्यान में क्रीड़ा कर रहे थे। उस समय इन्द्रसभा में धीर-वीर प्रभु की प्रशंसा होने से भव' नाम का एक इन्द्र-यक्ष उनकी परीक्षा करने आया। (भव' नामक यक्ष अथवा' स्थाणु' नामक रुद्र – ऐसे दोनों नाम पुराण में आते हैं।) ___ ध्यानस्थ प्रभु के सर्व प्रदेशों में ऐसी परमशान्ति व्याप्त हो गई है कि वन के हिंसक पशु भी वहीं शान्त होकर बैठगये। अद्भुत है उनकी धीरता...और अद्वितीय है उनकी वीरता ! वहाँ यक्ष ने आकर भयंकर रौद्ररूप धारण किया; सिंह, अजगर आदि की विक्रिया द्वारा उपद्रव करके प्रभु को ध्यान से डिगाने का प्रयत्न किया; पत्थर बरसाये, अग्नि के गोले फेंके; परन्तु वे सब प्रभु से दूर ही रहे....तीर्थंकरों का ऐसा ही अतिशय है कि उनके शरीर पर सीधा उपद्रव नहीं होता। उन्हें काँटे नहीं लगते, सर्प नहीं डस पाते, कोई प्रहार नहीं कर सकता। अहा ! जिनकी चेतना अन्तर्मुख है ऐसे वीर मुनिराज को बाह्य उपद्रव कैसे ? वीतरागी आराधना में वर्तते

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