Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 103
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१०१ अहा ! एक युवा राजपुत्र वीतराग होकर समस्त वस्त्राभूषण रहित दिगम्बर दशा में कैसे सुशोभित लगते होंगे ? अरे, सहज चैतन्यतत्त्व...उस पर कषाय की तथा वस्त्रादि की उपाधि कैसी ? शुद्धतत्त्व पर आवरण कैसा ? वस्त्राच्छादित वीतरागता वस्त्रावरण हटाकर बाहर निकल आयी। वीतरागता अपने ऊपर कोई आवरण नहीं सह सकती। जहाँ मोह का या राग का भी आवरण नहीं रुचता वहाँ बाह्य आवरण कैसे रुचेगा ? चार दीवारों का और वस्त्रों का आवरण तो विषयविकार के पाप को होता है; धर्म को आवरण कैसा ? वह तो सर्व बन्धनों को तोड़कर निर्ग्रन्थ होकर अपने मूल स्वरूप में विचरता है और सर्वत्र वीतरागता से सुशोभित होता है। धन्य दिगम्बर मुनिदशा ! कोई जीव जिस वस्तु का त्याग करे उससे ऊँची वस्तु का ग्रहण करना यदि उसे आता हो, तभी वह उसका सच्चा त्याग कर सकता है। पुण्यराग का सच्चा त्याग वही कर सकता है, जिसे वीतरागभाव ग्रहण करना आता हो। त्याग लाभदायक होना चाहिये, हानिकारक नहीं। जीव जो त्यागे उसकी अपेक्षा उच्च वस्तु - उच्च भाव प्राप्त करे तभी उसका वह त्याग लाभदायी कहा जायेगा। भगवान महावीर का त्याग ऐसा था कि उन्होंने जिन हेय तत्त्वों को छोड़ा उनसे विशेष उपादेय तत्त्वों को ग्रहण किया। उनकी शुद्धता की श्रेणी का क्या कहना ! जब वे निर्विकल्पता के महान आनन्द में झूलते थे तब उनके शुद्धोपयोग की प्रचण्डता देखकर बेचारी शेष चारों संज्वलन कषायें भी इसप्रकार चुपचाप होकर छिप जाती थीं, कि वे जीवित हैं या मृत – यह जानना भी कठिन लगता था; क्योंकि उस समय उनकी कोई प्रवृत्ति दिखायी नहीं देती थी। इसप्रकार एक ओर प्रभु महावीर शान्तभावरूप वीरता से कषायों को जीत रहे थे, दूसरी ओर त्रिशला माता भी वीर के वीतराग चारित्र का अनुमोदन करके अपने मोहबन्धन को ढीला कर रही थीं। 'अरे रे, राजभवन में जिसका लालनपालन हुआ है ऐसा मेरा पुत्र वन-जंगल में कैसे रहेगा ? और शीत-उष्णता कैसे सहन करेगा ? – ऐसी शंका वे नहीं करती थीं; वे जानती थीं कि आत्मसाधना में उनका पुत्र कैसा वीर है और उन्हें यह भी अनुभव था कि चैतन्य के आनन्द की लीनता में बाहर का लक्ष्य ही नहीं रहता। जहाँ शरीर का ही ममत्व नहीं रहता

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