Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१०८ कहीं एकाकी नहीं थे, किन्तु अपने गुण-पर्याय के अनन्त परिवार सहित थे। और फिर भी उनकी अनुभूति में द्रव्य-गुण-पर्याय के भेद भी नहीं थे, एकत्व था। बस, ऐसी एकत्व-अनुभूति ही मोक्ष का पंथ....वही महावीर का जीवन....और वही महावीर का स्वरूप था।
महावीर के ऐसे स्वरूप को जानने से मुमुक्षु के अन्तर से प्रतिध्वनि उठती है कि हे जीव ! अनन्त काल से संसार की चार गतियों में भ्रमण करते हुए भी जो सुख तुझे कहीं प्राप्त नहीं हुआ, उस अद्भुत अनुपम सुख का तुझे चैतन्य की अनुभूति में बहुल वेदन होगा....क्योंकि आत्मा स्वयं अद्भुत सुख का भण्डार है। उसे प्रत्यक्ष देखना हो तो इन महावीर को देखो !
'आत्मा चैतन्यसत्ता है। जो भी चैतन्यमय गुण-पर्यायें हैं उनसे भिन्न आत्म सत्ता नहीं है, एक ही सत्त्व है। स्वानुभूति के समय गुण-पर्यायों का विकल्प छूट जाने से वे-वे गुण-पर्यायें कहीं आत्मा से भिन्न नहीं हो जाते; अनुभूति स्वरूप आत्मा में द्रव्य-गुण-पर्याय के भेद मिटकर, तीनों स्वरूप से अभेद एक ज्ञायक स्वरूप प्रगट अनुभव में आता है, ऐसा अद्भुत अनेकान्त स्वरूप आत्मतत्त्व है।' - ऐसे अद्भुत आत्मतत्त्व को महावीर प्रभु प्रकाशित कर रहे हैं। “वन्दन हो उन वीर प्रभु को !"
ऐसी मुनिदशा में झूलते हुए प्रभु महावीर उल्लसित आत्म-आराधना सहित विहार करते हुए भारतभूमि को पावन कर रहे हैं। केवलज्ञान की साधना करतेकरते एक वर्ष...दो वर्ष...चार वर्ष...आठ वर्ष....इसप्रकार वर्षों पर वर्ष बीत रहे हैं और केवलज्ञान दिन-प्रतिदिन निकट आता जा रहा है। एकबार उन्होंने ऐसा उग्र अभिग्रह धारण किया कि दासी के वेश में सिर मुंडाये हुए, कोई सतीराजकुमारी आहार देगी तभी आहार लूँगा; साथ में अन्य भी अनेक अभिग्रह थे। ऐसे अभिग्रह सहित विचरते-विचरते दिवसों पर दिवस बीत रहे हैं, परन्तु अभिग्रह कहीं पूर्ण नहीं होता और बिना आहार के महीनों बीत चुके हैं....तथापि वीर मुनिराज के मन में किसी प्रकार की आकुलता नहीं है, सुस्वादु आहार मिले या उपवास हो – दोनों में समभाव है। प्रभु का आहार न होने से नगरवासी चिन्ता में हैं....इसप्रकार बिना आहार के पाँच मास बीत गये।
"विचरूँ उदयाधीन किन्तु निर्लोभ मैं...." ऐसी स्थिति में विचरते हुए