Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६ /१००
वृद्धिंगत होकर भगवान त्रिरत्नवन्त हुए; तीन ज्ञान से चार ज्ञानवन्त हुए; अनेक महान लब्धियाँ सेवा करने आ गईं। उनकी अतीन्द्रिय ज्ञानधारा तो केवलज्ञान के साथ केलि करने लगी। मानों केवलज्ञान ने उसी समय अपने ज्येष्ठ पुत्र समान मन:पर्ययज्ञान को भेजकर शीघ्र ही अपने आगमन की पूर्वसूचना दे दी । परन्तु प्रभु का लक्ष्य उस मन:पर्यय की ओर अथवा दिव्य लब्धियों की ओर नहीं था; वे तो अपने ज्ञायकस्वरूप की अनुभूति में ही ऐसे मग्न थे कि मानों सिद्धपद में विराज रहे हों । वाह ! कैसी अद्भुत है उनकी शान्त ध्यानमुद्रा ! प्रभु की ध्यानमुद्रा से प्रेरित होकर चारों ओर हजारों भव्यजीव भी चैतन्य का ध्यान धरने लगे हैं। अरे, ध्यानस्थ प्रभु की शान्तमुद्रा देखकर वन के सिंह, हाथी, हिरण, सर्पादि पशु भी मुग्ध होकर शान्ति से प्रभुचरणों में बैठ गये । अहा, 'जिनकी मुद्रा देखने से आत्मस्वरूप के दर्शन हों' – ऐसे उन ध्यानस्थ मुनिराज का क्या कहना ! वह तो साक्षात् मोक्षतत्त्व ही बैठा है.... ।
वैराग्य की प्रचण्ड बाढ़ से पूरी वैशाली घिर गई थी। हमारे लाड़ले राजकुमार तीस वर्ष हमारे साथ रहकर हमें सुख-समृद्धि दे गये.... . ज्ञान-वैराग्य दे गये.... अब वे हमें छोड़कर राग- -द्वेष-कामक्रोधादि को जीतने के लिये वन में चले गये । वे अवश्य विजेता बनेंगे । वे तो अपने शुद्धोपयोग में लीन होकर बैठे हैं; हमारी ओर देखने अथवा हमसे 'आओ' कहने के लिये दृष्टि भी नहीं उठाते - हमारे पाँव भी उन्हें वन में छोड़कर नगर में जाने के लिये नहीं उठते । राजवैभव के बिना भी परमवीतरागता से वे सुशोभित हो रहे हैं। सचमुच वीतरागता से ही सुख और शोभा है; बाह्य वैभव में न तो सुख है और न आत्मा की शोभा ! ऐसा विचारते हुए हजारों-लाखों नगरजन वीर के वैराग्य की प्रशंसा करते थे।
उस समय महान विजेता वीर तो अपने एकत्व में झूल रहे थे ।