Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 97
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६५ कहकर कौन बुलायेगा? यह राजभवन और वैभव सब तेरे बिना सूने-सूने लगेंगे। सुनो माँ ! यह सब मोह-ममता है। मैं तीस वर्ष तक इस राज-पाट और हीरेजवाहरात की सुख-समृद्धि में रहा, परन्तु मुझे इनमें कहीं चेतनता दिखायी नहीं दी, इन अचेतन पदार्थों में मैंने कहीं सुख या चैतन्य की चमक नहीं देखी,... और हे माता ! यह सब छोड़कर मैं कहीं दु:खी होनेवाला तो नहीं हूँ, उलटा इनमें रह कर जो सुख मैं भोगता हूँ उसकी अपेक्षा कोई विशिष्ट सुख मुझे प्राप्त होनेवाला है....और तुम देखना कि तुम्हारे इन अचेतन हीरों की अपेक्षा कोई अपूर्व-अमूल्यमहान-त्रिलोक प्रकाशी चैतन्यरत्न लेकर कुछ ही समय पश्चात् मैं परमात्मा बनकर वैशाली में आऊँगा। वीर कुँवर की बातें सुनकर त्रिशला माता को हार्दिक प्रसन्नता होती थी कि अरे, इस समय भी मेरे पुत्र का ज्ञान कितना विकसित है...उसकी चैतन्यरसयुक्त वाणी मन भरकर सुन लूँ... ऐसा सोचकर माता-पुत्र ने हृदय खोलखोलकर आत्म-साधना के विषय में अनेक प्रकार की चर्चाएँ कीं। ___ अहा ! ऐसे बाल-तीर्थंकर के साथ व्यक्तिगत रूप से धर्मचर्चा करने में मुमुक्षु को कितना आनन्द आता होगा? और उनके मुख से स्वानुभूति के रहस्य सुनकर कौन स्वानुभूति को प्राप्त नहीं होगा ? अरे, राजभवन में रहनेवाले राज-सेवक भी उनके श्रीमुख से खिरती वाणी सुनकर मुग्ध हो जाते थे और किन्हीं-किन्हीं को स्वानुभव भी हो जाता था। इसप्रकार द्रव्य-तीर्थंकर के प्रताप से चारों ओर धर्मप्रभावना हो रही थी और भाव-तीर्थंकर होने का दिन भी निकट आता जा रहा था। दो के बाद अब तीसरे कल्याणक की तैयारी होने लगी थी। भगवान महावीर : वैराग्य और दीक्षा (मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी) आज पूरी रात राजकुमार वर्द्धमान चैतन्य की अनोखी धुन में थे; निद्रा का तो नाम ही नहीं था; उपयोग बारम्बार चैतन्य की अनुभूति में स्थिर हो जाता था। परभावों से थककर विमुख हुआ उनका उपयोग अब आनन्दमय निजघर में ही सम्पूर्ण रूप से स्थिर रहना चाहता था। तीस वर्ष के राजकुमार का चित्त आज अचानक ही संसार से विरक्त हो गया है; मोक्षार्थी जीव प्रशम हेतु किन्हीं बाह्य

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