Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 93
________________ 4 .1 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६१ के सम्पर्क से स्वानुभूति प्राप्त करके कैसा सुशोभित हो रहा है ! महावीरकुमार जब तीर्थंकर होकर धर्म-नेता बनेंगे तब तू भी भारत के समस्त श्राविका संघ की तथा आर्यिका संघ की नायिकारूप से समवसरण में शोभा देगी। ____ बड़ी बहिन की यह बात सुनकर चन्दना प्रसन्नता से बोली - दीदी ! धन्य है वह अवसर ! मैं उस दिन की भावना भाती हूँ जब वीरकुमार को सर्वज्ञरूप में देखू और उनकी धर्मसभा में बैठकर आत्मसाधना करूँ। साध्यरूप आत्मा को उनके प्रताप से हमने अपने अन्तर में देख लिया है और अन्दर में अपूर्व आत्मसाधना प्रारम्भ हो चुकी है। ___'अहा ! मेरा पुत्र महावीर इस जीवन में ही सर्वज्ञ बनेगा....मैं सर्वज्ञ महावीर की माता कहलाऊँगी और एक अवतार के बाद मेरे भी भव का अन्त होकर, मैं भी सर्वज्ञ परमात्मा बनूंगी।' ऐसे विचार से प्रियकारिणी-त्रिशला देवी का चित्त किसी अनुपम आह्लाद का अनुभव करने लगा। अहा ! अपने ही आत्मा को सर्वज्ञ-परमात्मारूप से देखकर मुमुक्षु का हृदय आनन्दित हो - इसमें क्या आश्चर्य ! अन्तरंग हर्ष व्यक्त करते हुए त्रिशला देवी बोलीं - प्रिय बहिन चन्दना ! अब अनुभूति के प्रभाव से अपनी स्त्री पर्याय का छेद हो गया, इतना ही नहीं अपने संसार का भी अन्त आ गया....एक भव पश्चात् हम परमात्मपद की साधना करके मोक्षपुरी में पहुँच जायेंगे। चन्दना बोली- अरे दीदी ! उस मोक्षपुरी के स्मरण से भी हमें कितना आनन्द होता है....तो उस साक्षात् दशा का क्या कहना ! इन्द्रियज्ञान से उसका अनुमान भी नहीं हो सकता; अपने ज्ञान में अंशत: अतीन्द्रियपना हो तभी उस सर्वज्ञ सुख को जाना जा सकता है। अचिन्त्य है उसकी महिमा ! त्रिशला देवी कहने लगीं - हाँ चन्दना ! ऐसे अपार महिमावन्त आत्मा का स्वानुभूति में इस समय भी अनुभव होता है। आत्मा के एकत्व की वह अनुभूति 'अभेद' होने पर भी एकान्त नहीं है; आत्मा के शुद्ध द्रव्य-गुण-पर्यायरूप अनन्त

Loading...

Page Navigation
1 ... 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148