Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 78
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/७६ अनुभव होकर जगत से निर्भय हो जाएँ। कक्ष में बैठे-बैठे वीर कुँवर इसप्रकार आत्मा के शान्तरस का विचार कर रहे हैं; उससमय राजप्रासाद के बाहर - बचाओ!... बचाओ!...की आवाजें आ रही हैं ! राजा का हाथी पागल होकर दौड़ रहा है...राजमार्ग पर कोलाहल मचा है और प्रजाजन भयभीत होकर इधरउधर भाग रहे हैं। ___ आत्मा की अगाध शान्ति का विचार । करते हुए महावीर ने वह कोलाहल सुना और धीर-गम्भीररूप से बाहर राजमार्ग पर आये। उन्होंने हाथ उठाकर लोगों को आश्वासन दिया और शान्त रहने को कहा। . ___ महावीर को देखते ही मानों चमत्कार हुआ....लोग निर्भय होकर आश्चर्यपूर्वक देखने लगे कि अब क्या होगा? एक ओर बालक महावीर....दूसरी ओर क्रोधाविष्ट मदोन्मत्त हाथी । बालक महावीर धीर-गम्भीर चाल से उस ओर चलने लगे जिधर से हाथी दौड़ता आ रहा था....हाथी के सामने आकर उस पर दृष्टि स्थिर करके खड़े हो गये....क्षण दो क्षण शान्तदृष्टि से हाथी को देखते रहे ! ____ अहा ! कैसी शान्तरस भरी थी वह अमी दृष्टि ! मानों उससे अमृत झर रहा था। मानों उस दृष्टि द्वारा महावीर कह रहे थे कि अरे गजराज! यह पागलपन छोड़, लोग तेरे पागलपन का कारण नहीं जानते; किन्तु मैं जानता हूँ। अरे ! यह चार गति के दुःख और उनमें यह तिर्यंच गति की वेदना...उससे तू अकुला गया है और छूटने को उद्विग्न हुआ है....परन्तु धैर्य रख....शान्त हो ! उद्वेग करने से यह दु:ख दूर नहीं होगा। अहा ! हाथी तो मानों भगवान के नेत्रों से झरते हुए शान्त रस के स्रोत का पान कर रहा हो, इसप्रकार टकटकी बाँधकर प्रभु की ओर देखता ही रह गया....आस-पास के वातावरण को वह भूल गया। ___ ‘वाह कैसी शान्ति है इन कुमार के मुखमण्डल पर ! मुझे भी ऐसी शान्ति प्राप्त हो जाए तो कितना अच्छा हो!' – ऐसा विचारते हुए वह हाथी बिलकुल शान्त

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