Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/८४ 'उत्पाद-व्यय से क्षणिक फिर भी, हानि ध्रुव में है नहीं।' 'अपादान' की शक्ति ऐसी, सेवो सदा निज में ही है ॥२७॥ जो भाव्यरूपी ज्ञानभाव हि, आत्मा में परिणमें । आत्मा ही है अधिकरण' उनका, है कहा जिनवचन में ॥२८|| है 'स्वत्व अरु स्वामित्व' मेरा, मात्र आत्मस्वभाव में। स्वत्व मेरा नहिं कदा, निजभाव से कुछ अन्य में ।।२६।। जयवन्त है अनेकान्त ऐसा, आत्मशक्ति का प्रकाशक । मेरी अनन्ती शक्तियाँ मम, ज्ञान में ही सदा व्यापक ॥३०॥ मम ज्ञान लक्षण भाव के सह, उल्लसित भाव हि अनन्त । अनुभव करूँ उनका अहो ! न विभाव कोई अनुभूत ।।३१।। जिनमार्ग सब ही प्राप्त कर लें, वीर वचन प्रसाद से । अन्तर में देखो रूप चेतन, पार जो परभाव से ॥३२॥ निज शक्ति से देखो निजात्मा, अन्तर्मुखी होकर अहो। निज शक्ति का वैभव अहो ! वह पार है परभाव से ॥३३।। मैं ज्ञानमात्र हि एक ज्ञायक, पिण्डमय हूँ आतमा। गंभीरता है अनन्त जिसमें, देखा वही परमातमा ।।३४।। आश्चर्य अद्भुत भासता, निज वैभवों को देखते । आनन्दमय आह्लाद उछले, बार-बार हि ध्यावते ।।३।। अद्भुत अहो ! अद्भुत अहो ! हे विजयवन्त स्वभाव यह । जयवन्त है अनेकान्त जिसने, निज निधान बता दिया ।।३६।।
(पूज्य श्री कानजीस्वामी जब अस्वस्थ थे, उससमय ब्र. हरिभाई उन्हें आत्मशान्ति का यह काव्य कई बार सुनाते थे; इसे सुनकर वे अति प्रसन्न होते थे। इस काव्यसम्बन्धी उनके प्रमोद भरे हस्ताक्षर यहाँ दिये जा रहे हैं ।) 38.
स मस्१५ अनंतशत संपन्न ચૈતન્ય ચિત ચમકારે ચિંતામણી