Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १ / ८३
स्व-पर में सम और विषम मिश्ररूप भी जो रहे । ऐसे 'त्रिविध निजशक्ति' से, निजधर्म को आत्मा धरे || १४ || धारे अनन्ते भाव चेतन, 'अनन्तधर्म' स्वशक्ति से । तत् अरु अतत् द्वय साथ रहते, 'विरुद्धधर्म' स्वशक्ति से |१५|| है ज्ञान का तद्रूप होना, 'तत्त्व' नामक शक्ति से । ज्ञान हो जड़रूप ना वह, 'अतत्त्व' नामक शक्ति है || १६ ||
जो व्यापता बहु पर्ययों में, पण एक द्रव्यपने रहे । 'एकत्व' शक्ति हि निज स्वरूपी, जान जीव शान्ति लहे ||१७|| द्रव्यरूप जो एक है, पर्याय में होवे 'अनेक' । निज पर्ययों में व्यापता, वह ज्ञान सुखमय सिद्ध हो ॥ १८ ॥ 'भावशक्ति' हि जीव की, सत् रूप उसको नित रखे । पर्याय रूप से है असत् जीव भी, 'अभाव' स्वशक्ति से ॥ १६ ॥ 'भाव का होवे अभाव' रु 'अभाव का हो भाव' जो । हो शक्ति ऐसी एकसाथहि, ज्ञान में तू जान रे ||२०|| 'भाव वह तो भाव' अरु 'अभाव वह हो अभाव ही ' । ऐसे स्वभावों से ही जीव रहता नित्य ही चेतनमयी ||२१||
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नहिं कारकों को अनुसरे, ऐसा हि रहना 'भाव' से । अरु कारकों को अनुसरे, निज की 'क्रिया' की शक्ति से ॥ २२ ॥
निज 'कर्म शक्ति' से निजात्मा, सिद्ध पद पावे स्वयं । अरु 'कर्तृ शक्ति' से स्वयं ही, सिद्धरूप भावक स्वयं ॥२३॥ जो शुद्धभाव हि ज्ञानरूपी, भवन उनका स्वरूप से । आत्मा स्वयं उस भाव का, उत्कृष्ट साधन होत है ||२४||
तब 'करण शक्ति' हि जान रे, तू बाह्य साधन शोध मत । आत्मा हि तेरा करण है, फिर अन्य बात रु पूछ मत ।। २५ ।। आत्मा निजात्मा को ही देता, ज्ञानभाव स्वभाव से । उसको ही लेता आत्मा, निज 'सम्प्रदान' स्वभाव से ||२६||