Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
View full book text
________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/८२
आत्म-स्तवन (४७ शक्ति काव्य) जीव है अनन्ती शक्ति सम्पन्न, राग से वह भिन्न है । उस जीव का निर्देश करने, ज्ञानमात्र कहा उसे ।।१।। बस ज्ञानमात्र स्वभाव में ही, अनन्त शक्ति उछलती। उन शक्तियों का करूँ वर्णन, जीव भवि जानो वही ।।२।। 'जीवत्व' से जीवितं सदा, 'चिति' शक्ति से वह चेतता। 'दृशि' शक्ति से देखे सभी को, ‘ज्ञान' से वह जानता ॥३॥ आकुल न हो 'सुख' शक्ति से, निज को रचे गुण 'वीर्य' से। वह शोभता 'प्रभु' शक्ति से, व्यापे वही 'विभु' शक्ति से ॥४॥ सामान्य देखे विश्व को वह, ‘सर्वदर्शि' शक्ति है। जाने विशेष हि विश्व को, 'सर्वज्ञता' की शक्ति से ॥५।। जहँ विश्व झलके स्वच्छ ऐसी, शक्ति है ‘स्वच्छत्व' की। स्वानुभवमय प्रगट है वह, शक्ति जान 'प्रकाश' की॥६॥ 'न विकास अरु संकोच' जिससे, शक्ति वह है तेरमी। 'नहीं कार्य कारण भी किसी का', यह शक्ति भी है आत्म की॥७॥ जो ज्ञेय का ज्ञाता बने, अरु ज्ञेय बनता ज्ञान में। 'परिणम्य परिणामक' कहा, उस शक्ति को जिनशास्त्र में ॥८॥ 'नहिं त्याग वा नहिं ग्रहण भी' निजरूप में स्थित जीव है। निजरूप से यह जीव तिष्ठे, वह शक्ति ‘अगुरुलघुत्व' से ॥६॥ 'उत्पाद व्यय ध्रुव' शक्ति से, जीव वृत्ति क्रम-अक्रम धरे। तिहुँकाल में ‘परिणाम' शक्ति से, स्वसत्ता नहीं फिरे ॥१०॥ नहिं स्पर्श जानो जीव में, आतमप्रदेश ‘अमूर्त' हैं। कर्ता नहीं परभाव का, ऐसी ‘अकर्तृ' शक्ति है ।।११।। भोक्ता नहीं परभाव का, ऐसी ‘अभोक्तृ' शक्ति है। नि:स्पंद आत्मप्रदेश हैं बस, 'निष्क्रियत्व' स्वशक्ति से ।।१२।। आत्मप्रदेश असंख्य ही हैं 'नियत-प्रदेशी' शक्ति से । वह व्यापता न शरीर में 'निजधर्मव्यापक' शक्ति से ।।१३।।