Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/८१ स्वानुभूतिवन्त जीव में सुन्दरपने वह शोभती ।
आनन्द करती मस्त हो निज मोक्ष को वह साधती॥ राजयोगी वर्द्धमान ने स्वानुभूतिगम्य आत्मतत्त्व की ज्ञानचेतना का अद्भुत वीतरागी स्वरूप समझाते हुए कहा – यह ज्ञानचेतनास्वरूप आत्मा है, उस चेतना में रागादि विभावों का मिश्रण नहीं हैं। एक परमाणु जितने राग का भी यदि ज्ञानचेतना में मिश्रण करोगे तो ज्ञान के परमार्थ स्वाद का अनुभव नहीं होगा; राग में ज्ञान का रस नहीं है। इसलिये हे जीवो ! यह वीतराग उपदेश प्राप्त करके तुम सर्वत: राग से भिन्न ऐसे शुद्धज्ञान का आस्वादन करो। परम आनन्द स्वाद से भरपूर वह शुद्ध ज्ञान ही आत्मा का निजपद है। अहो! यह ज्ञानस्वरूप आत्मा सत्य है, उसकी प्रीति करो, तन्मयता से उसका अनुभव करो; उसका अनुभव ही परमतृप्ति एवं सन्तोषदायक है.... वही कल्याण कारण है, और वही मोक्षसुखदायक है। आत्मा अनन्त शक्ति का स्वामी है, वह जब स्वयं जागृत हो तब सहज-प्रयत्न से अपना कल्याण कर लेता है। ___ एक सभाजन ने आतुरता से पूछा - प्रभो ! ‘आत्मा अनन्तशक्ति सम्पन्न है' तो उसमें कैसी-कैसी शक्तियाँ हैं ? वह आपके श्रीमुख से सुनने की उत्कण्ठा है।
उसके उत्तर में मोक्षसाधक युवराज महावीर ने चैतन्य स्वरूप आत्मा की अनन्त शक्तियों का अद्भुत, परम अध्यात्मरस पूरित वर्णन किया - अभेदरूप ज्ञानलक्षण द्वारा लक्षित करके ज्ञायक का अनुभव करने पर जीवत्व, चेतना, सुख, वीर्य, प्रभुता, विभुता, स्वसंवेदनता - आदि अनन्त चैतन्य शक्तिरूप से आत्मा एक साथ वेदन में आता है। अहा ! जिसकी प्रत्येक शक्ति की महत्ता अपार है ऐसी अनन्त शक्तियाँ, वे भी रागरहित शुद्ध परिणमन युक्त ऐसी अगाध शक्तिवान आत्मा की अद्भुत महिमा एक भावी तीर्थंकर के श्रीमुख से साक्षात् सुनकर अनेक भव्यजीव उस चैतन्यमहिमा में इतने गहरे उतर गये कि तत्क्षण ही महा-आनन्द सहित निर्विकल्प आत्मानुभूति को प्राप्त हुए और अनन्त शक्तियों का स्वाद एक साथ स्वानुभूति में चख लिया। एक राजकवि ने प्रभु द्वारा कही गई अनन्त शक्तियों का संक्षिप्त वर्णन तत्काल आत्मस्तवन' रूप में गूंथकर राजसभा को सुनाया। आप भी मधुर चैतन्यरस से भरपूर उस काव्य का रसास्वादन करें -