Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/३४ श्री मुनिराज के मुख से झरती हुई परम वैराग्यवाणी में अपने पूर्वभवों का वर्णन सुनकर सिंह के परिणामों में महान परिवर्तन होने लगा; उसे जातिस्मरण हुआ और समस्त दुःखों के कारणरूप मिथ्यात्व-कषायों से उसकी परिणति पराङ्मुख होने लगी। वाह रे वाह ! धन्य सिंह-शार्दूल ! अब तेरा चैतन्य पराक्रम जागृत होने लगा है। सचमुच हिंसा में पराक्रम नहीं है, अहिंसा एवं शान्ति में ही सच्चा पराक्रम है।
मुनिराज कह रहे हैं - हे भव्य ! हम तुम्हें एक विशेष सुखदायी बात बतलाते हैं, तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो ! अब इस भव में तुम्हारा आत्मा सम्यक्त्व प्राप्त करके आत्मा की अखण्ड साधना करेगा और क्रमश: उन्नति करते-करते पूर्णता साधकर इस भरतक्षेत्र में चौबीसवाँ तीर्थंकर बनेगा। यह बात हमने विदेहक्षेत्र में सीमन्धर स्वामी के श्रीमुख से सुनी है; इसीलिये हमें तुम्हारे प्रति स्नेह जागृत हुआ है।
अहो ! सिंह का भव्य आत्मा यह सुनते ही हर्षपूर्वक नाच उठा....वाह! मैं अब इन भयंकर दु:खों से तथा हिंसा से छूटकर अपूर्व सुख प्राप्त करूँगा। दुःख से छूटने की बात सुनकर कौन आनन्दित नहीं होगा? ...मुनियों ने वात्सल्य प्रगट किया, उससे तो वह अति आह्लादित हो उठा - अहा ! मुनिवर मुझे सम्यक्त्व प्राप्त कराने आये हैं, मुझ पर कृपा करके वे आकाशमार्ग से उतरकर मुझे प्रतिबोध देने आये हैं। वाह ! तीर्थंकर के श्रीमुख से मेरे भावी तीर्थंकरत्व की मंगलवाणी निकली। ___ मुझ जैसा भाग्यशाली कौन होगा ? इससे उत्तम मंगल और क्या होगा? ....बस, सिंह तो सब भूल गया और अन्तर चैतन्य की महिमा में इसप्रकार निमग्न होने लगा मानों वर्तमान में ही तीर्थंकर बन गया हो। उसकी परिणति में कषाय से भिन्न शान्ति की तरंगें उठने लगीं; उसका अन्तर वैराग्य से उछलने लगा; परिणति कषाय से भिन्न होकर चैतन्यशान्ति का वेदन करने हेतु अन्तर्मुख हो गई; उसके परिणाम विशुद्ध होने लगे। इसप्रकार भावी तीर्थंकर – ऐसा वह सिंह उपयोग की एकाग्रता से सम्यक्त्व-ग्रहण की ओर झुक रहा है। अपना शान्त
चैतन्यतत्त्व देखने पर ही उसका लक्ष्य है। आँखें मूंदकर ज्ञान को स्थिर करके निजस्वरूप को देखने के लिये उसका उपयोग उत्सुक हो उठा है। बस, अब अधिक देर नहीं है।