Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६१ कर लिया; क्योंकि लोग तो मेरु की दिव्य शोभा को देखना छोड़कर प्रभु के मुखारविन्द को निहार रहे थे। प्रभु में लगे हुए उनके चित्त को दूसरा कोई आकर्षित
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नहीं कर सकता था। मेरु पर ‘स्थापनारूप जिन' तो सदा-शाश्वत विराजते हैं, तदुपरान्त आज तो 'द्रव्यजिन' तथा अशंत: ‘भावजिन' वहाँ पधारे थे; फिर उसके गौरव की क्या बात? ___अहा ! वह तो जगत का एक पूज्यनीय तीर्थ बन गया था। वहाँ ध्यान धारण कर अनेक मुनिवर निर्वाण प्राप्त करते हैं, इसलिये वह सिद्धिधाम (निर्वाण तीर्थ) भी है। अहा ! तीर्थ स्वरूप आत्मा का जहाँ-जहाँ स्पर्श होता है वह सब तीर्थ बन जाता है। सम्यग्ज्ञान की यह महत्ता है कि वह द्रव्य-क्षेत्र-काल से 'भाव' मंगल को जानकर उसके साथ आत्मा की सन्धि कर लेता है। उस जन्माभिषेक के समय सर्वत्र आनन्द छा गया.... “धन्य घड़ी धन्यकाल शुभ देखो, हरि अभिषेक करे प्रभुजी को”
देवगण भक्ति से नाच उठे और मुनिवर चैतन्य की अगाध महिमा का चिन्तन करते-करते ध्यानमग्न हुए। निर्विकल्प जिनभक्ति तथा सविकल्प जिनभक्ति - दोनों का वहाँ संगम हुआ। वाह प्रभो ! अभी तो आप बाल-तीर्थंकर हैं, द्रव्यतीर्थंकर हैं; तथापि ऐसी अगाध महिमा ! तब फिर जब आप भविष्य में इसी भव में सर्वज्ञ होकर साक्षात् तीर्थंकर होंगे और इष्ट-उपदेश द्वारा जगत में रत्नत्रय-तीर्थ का प्रवर्तन करेंगे, उस काल की महिमा का क्या कहना ? घटे 'द्रव्य-जगदीश' अवतार ऐसा, कहो ‘भाव-जगदीश' अवतार कैसा?
प्रभो ! आपकी महिमा को जो जानेगा वह अवश्य सम्यक्त्व प्राप्त करेगा। हे देव ! आपके जन्मोत्सव में कहीं राग का ही उल्लास नहीं था; राग से पार ऐसे वीतरागरस की एकधारा भी वहाँ चल रही थी। जैनदर्शन की इस अद्भुतता को