Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 62
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६ / ६० देखते ही आनन्द से उसका अन्तर नाच उठा - 'अहा ! देवी पर्याय में सन्तान नहीं होती; परन्तु मुझे तो इन तीर्थंकर समान पुत्र को गोद में लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।' इसप्रकार परम हर्षपूर्वक उन बाल- तीर्थंकर के स्पर्श से वे इन्द्राणी चैतन्य की अद्भुतता का अनुभव करने लगी....अहा ! प्रभु के स्पर्श से मैं धन्य हो गई। अब मैं स्त्री पर्याय का छेद करके मोक्ष प्राप्त करूँगी....ऐसे आत्मिक आह्लाद सहित उन बाल प्रभु को इन्द्र के हाथ में दिया । इन्द्र भी प्रभु का रूप देखकर ऐसे आश्चर्य चकित हुए कि एक साथ हजार नेत्र बनाकर उस रूप को निहारने लगे। जिसप्रकार मोक्षाभिलाषी जीव अतीन्द्रिय ज्ञान की सर्व किरणों द्वारा आत्मा के अलौकिक रूप का निरीक्षण करता है और महा आनन्दित होता है, उसीप्रकार हरि हजार नेत्रों द्वारा प्रभु के रूप को देखकर अति प्रसन्न हुए। उससमय होनेवाली दिव्य पुष्पवृष्टि से ऐसा लग रहा था, मानों आकाश में सुन्दर उद्यान खिला हो ! ... परन्तु अरे ! उस दिव्य पुष्पोद्यान की अपेक्षा प्रभु के आत्मा में जिन चैतन्य के अद्भुत गुणों का उद्यान खिल रहा था, उसे तो धर्मात्मा ही देख सकते थे और 'अगन्धभाव' से उस चैतन्यउद्यान की अपूर्व सुगन्ध लेते थे । इसप्रकार अद्भुत जिनमहिमा देखकर तथा चैतन्य की अचिन्त्यता को लक्ष्यगत करके अनेक जीव सम्यक्त्व को प्राप्त हुए; सम्यक्त्व के अनुपम प्रकाश से उनका आत्मा जगमगा उठा। प्रभु का जन्म उनके लिये सचमुच कल्याणकारी हुआ। अहो ! तीर्थंकरों का अचिन्त्य प्रभाव ! बाल-तीर्थंकर का रूप निहारने के लिये हजार नेत्र खोलकर इन्द्र ऐसा बतलाना चाहता था कि अरे जीवो ! मेरे यह हजार नेत्र जिनका रूप देखने के लिये कम लग रहे हैं, उन साधक के अन्तर का तो क्या कहना ? ऐसे आत्मसाधक आत्मा की पहिचान बाह्य नेत्रों द्वारा नहीं; किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा ही होती है। इसलिये जन्मकल्याणक में तुम प्रभु को मात्र इन्द्रिय ज्ञान द्वारा न देखकर उन्हें अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा पहिचानना । उससे प्रभु के कल्याणक के साथ तुम्हारा भी कल्याण होगा, तुम्हें सम्यग्दर्शनादि कल्याणकारी भाव प्रगट होंगे। अति शोभायमान शाश्वत मेरुपर्वत जिनप्रभु के जन्माभिषेक से अत्यधिक सुशोभित हो उठा अथवा ऐसे कहो कि जिनराज ने आकर मेरु की शोभा का हरण

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