Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६/६७
राजकुमार - नहीं, सर्वज्ञ को माने बिना धर्म कदापि नहीं होता । देवकुमार - सर्वज्ञ को माने बिना धर्म क्यों नहीं होता ?
राजकुमार – क्योंकि सर्वज्ञता ही आत्मा की पूर्ण प्रगट हुई परमात्मशक्ति है; आत्मा की पूर्ण प्रकट हुई शक्ति को जो नहीं मानेगा वह अपने आत्मा की परमात्मशक्ति को भी कहाँ से जानेगा ? और जब तक अपने आत्मा की पूर्ण शक्ति को नहीं जानेगा, तबतक पर में से ज्ञान या सुख प्राप्त करने की पराश्रित मिथ्याबुद्धि बनी ही रहती है; जहाँ पराश्रित बुद्धि हो अर्थात् बाह्यविषयों में सुखबुद्धि हो वहाँ धर्म हो ही नहीं सकता । इसप्रकार सर्वज्ञ को माने बिना कदापि धर्म नहीं हो सकता ।
देवकुमार - सर्वज्ञ को माने बिना आत्मा की पूर्ण शक्ति को मान लें तो ?
राजकुमार - यदि आत्मा की पूर्ण शक्ति को यथार्थरूप से मानें तो उसमें सर्वज्ञ की प्रतीति भी अवश्य आ ही जाती है। यदि सर्वज्ञ की प्रतीति न हो तो आत्मा की पूर्ण शक्ति की प्रतीति भी नहीं होती। अपने को पूर्ण सुख चाहिये न ? तो जहाँ पूर्णज्ञान हो वहीं पूर्ण सुख होता है; इसलिये पूर्णज्ञान कैसा होता है उसका निर्णय करना चाहिये । पूर्णज्ञान के निर्णय में ही सर्वज्ञ की मान्यता आ गई तथा ज्ञान एवं राग का भेदज्ञान भी हो गया; क्योंकि पूर्णज्ञान में राग का सर्वथा अभाव है। भले ही सर्वज्ञ अपने सामने उपस्थित न हों; परन्तु अपने ज्ञान में तो उनका निर्णय हो ही जाना चाहिये। तभी आत्मा की पूर्णशक्ति का विश्वास आयेगा और धर्म होगा ।
देवकुमार - सर्वज्ञ कौन हो सकता है ?
राजकुमार - प्रथम जो सर्वज्ञ को तथा सर्वज्ञ समान अपने आत्मा की परमात्मशक्ति को जाने, वह जीव अपनी सर्वज्ञत्व शक्ति में से सर्वज्ञता की व्यक्ति करके सर्वज्ञ होता है। इसलिये जो सर्वज्ञस्वभाव को जाने, वही आत्मज्ञ होता है और जो आत्मज्ञ हो, वह अवश्य ही सर्वज्ञ होता है । इसप्रकार सर्वज्ञता जैनधर्म का मूल है।
इसलिये हे मुमुक्षु भव्यजीवो ! यदि तुम धर्मार्थ सर्वज्ञ का निर्णय करना चाहते हो तो सर्वज्ञता के प्रति जिनकी परिणति उल्लसित हो रही है, जिनकी वाणी एवं मुद्रा सर्वज्ञता की नि:शंक घोषणा कर रही है तथा राग से भिन्न ज्ञानचेतना के बल