Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/३६ ध्यान में लीन होकर बैठे हैं, सामने सिंह भी निर्विकल्प होकर सम्यक्त्व प्राप्ति के धन्य क्षण का अपूर्व आनन्द ले रहा है.....वाह रे वाह ! धन्य गुरु ! धन्य शिष्य ! धन्य निर्विकल्पता का आनन्दोत्सव !
क्षणभर के लिये सारा वन प्रदेश स्तब्ध रह गया....वह भी मानों निर्विकल्पता में झूलने लगा। वन के जो पशु पहले भयभीत होकर भागते थे, वे भी सिंह की नवीन शान्त चेष्टा देखकर आश्चर्य से स्तम्भित हो गये। कुछ देर बाद जब सिंह ध्यान से बाहर आया और मुनिवरों की ओर देखा तथा मुनिवरों ने भी मधुर दृष्टि से देखकर उस सम्यग्दृष्टि सिंह की पीठ पर हाथ रखा, तब उसकी आँखों में आँसू भर आये....वे आँसू दुःख के नहीं; किन्तु हर्ष के थे। ___अगले पाँवोंरूपी दो हाथ जोड़कर मुनियों की वन्दना करता हुआ वह सिंह मानों उपकार व्यक्त कर रहा था, वहाँ भाषा भले ही नहीं थी; परन्तु भावों द्वारा वह मुनिराज की अपार भक्ति कर रहा था....'अहो मुनिराज ! आपके प्रताप से मैं भवदुःख से छूटकर ऐसे अपूर्व आत्मानन्द को प्राप्त हुआ' और जब मुनिराज ने उसके मस्तक पर हाथ रखकर आशीर्वाद देकर वात्सल्य प्रगट किया तब तो मानों वह कृतकृत्य हो गया। अहा ! मोक्षगामी मुनिवरों का हाथ जिसके मस्तक पर फिरा और आशीर्वाद मिला, उस भव्य के हर्षानन्द का क्या कहना ? उसके तो भव के फेरे टल गये.... और मोक्ष की बारी आयी। ___ मुनिराज ने कहाहे सिंह! तुम सम्यग्दर्शन पाकर धन्य हुए; अब तुम्हारे मिथ्यात्वजन्य पाप धुल गये; तुम, मोक्ष के साधक बने। वाह ! तुम्हें देखकर हमें वात्सल्य भाव आता है।
सिंह का अन्तर भी आनन्द से नाच उठा, उसने खड़े होकर मुनिराज के चरणों में मस्तक झुकाया और धीरे-धीरे चलकर उनकी प्रदक्षिणा करने लगा।
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