Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/५२ - पुरुषार्थ सिद्धियुपाय श्लोक - २१२ से २१४) भगवान के मुनि-जीवन की, (और ऐसे ही प्रत्येक साधक धर्मात्मा की) यह विशेषता है कि उनकी चैतन्यधारा बंध को तोड़ती हुई आनन्दपूर्वक मोक्ष को साधने का कार्य निरन्तर कर रही है, उनकी ज्ञानचेतना का प्रवाह अखण्डरूप से केवलज्ञान की ओर दौड़ रहा है। अहा! धर्मात्मा की यह दशा अद्भुत आश्चर्यजनक है! ऐसी अद्भुत वीतरागीदशा में वे नन्दमुनि शोभायमान थे। यह मुनिराज अब तीर्थंकर होकर मोक्ष में जाने की तैयारी कर रहे हैं, इनके साथ हम भी मोक्ष में जायेंगे' - ऐसी भावना से प्रेरित होकर जगत के समस्त सद्गुण दौड़-दौड़कर प्रभु के आश्रय में आ रहे थे और क्रोधादि समस्त दोष अब अपना नाश निकट जानकर शीघ्रता से दूर भागने लगे थे।
इसप्रकार दोष रहित गुण सहित निर्दोष मोक्षमार्ग को वे मुनिराज सुशोभित कर रहे थे और जगत को भी उस सुन्दर मार्ग की प्रेरणा दे रहे थे....इसप्रकार रत्नत्रय की उत्तम आराधनापूर्वक समाधिमरण करके वे महात्मा १६वे प्राणत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में इन्द्ररूप से उत्पन्न हुए। यद्यपि वहाँ वे पुण्यजनित दिव्य इन्द्रियसुखों के सागर में रहते थे; तथापि उन मुमुक्षु महात्मा को मोक्षसुख के बिना कहीं चैन नहीं पड़ता था; इसलिये अन्त में उन स्वर्गसुखों को भी छोड़कर मोक्षसुख की साधना के लिये वे मनुष्यलोक में आने को तैयार हुए।
है शार्दूल समान वीरता, साधकत्व है अनुपम । भव का अन्त किया जिनने, उन महावीर को वन्दन ॥ (यहाँ भगवान महावीर के पूर्वभवों का वर्णन पूर्ण हुआ।)
यदि जरा भी भय है तुझे इस जरा एवं मरण से। तो धर्मरस का पान कर हो जाय अजरा-अमर तू॥ आयु गले मन ना गले ना गले आशा जीव की। मोहस्फुरे हित नास्फुरे यह दुर्गति इस जीव की॥ परतंत्रता मन-इन्द्रियों की जाय फिर क्या पूछना। रुक जाँय राग-द्वेष तो हो उदित आतंम भावना ॥
-योगसार पद्यानुवाद, 46,49,54