Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - -६/५१ तीर्थंकर प्रकृति के बन्धन में भी समझ लेना अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व की भाँति तीर्थंकर प्रकृति का प्रारम्भ भी केवली या श्रुतकेवली के सान्निध्य में ही होता है। – कषायप्राभृत, गाथा-११० ( यहाँ, तीर्थंकरत्व के कारणरूप दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का अति सुन्दर भावपूर्ण वर्णन षट्खण्डागम, धवला आदि के आधार से किया गया है; परन्तु 'महापुराण' का विस्तार बढ़ जाने से वह प्रकरण यहाँ नहीं दिया जा सका; अन्य किसी पुस्तक में उसे प्रकाशित करेंगे। इसी प्रकार दूसरे भी अनेक प्रकरण संक्षिप्त करने पड़े हैं। जो जिज्ञासु उन्हें पढ़ना चाहते हों वे प्रकाशक से सम्पर्क करें । ' )
- इसप्रकार उन नन्द मुनि ने दर्शनविशुद्धि से लेकर प्रवचन वत्सलत्व तक की सोलह मंगल-भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति बाँधना प्रारम्भ किया । यद्यपि एक ओर अघाति ऐसी तीर्थंकर प्रकृति बँध रही थी, तो दूसरी ओर उसीसमय वे मोहादि घाति - कर्मों को वे नष्ट-भ्रष्ट कर रहे थे.... और जिसके बिना तीर्थंकरत्व की सम्भावना नहीं होती - ऐसी सर्वज्ञता को वे अति शीघ्रता से निकट ला रहे थे । वे रत्नत्रयवन्त धर्मात्मा कहीं तीन रत्नों को ही धारण नहीं करते थे; उनका आत्मा तो अपार चैतन्यगुण रत्नों की राशि से शोभायमान था। उनमें सम्यक्त्वादि शुद्धभाव मोक्ष के ही साधक थे, बंध के किंचित् भी नहीं । जब भरतक्षेत्र के २४वें तीर्थंकर ने तीर्थंकर प्रकृति बाँधना प्रारम्भ किया तब १२वे वासुपूज्य तीर्थंकर का शासन प्रवर्त रहा था। एक ओर थोड़ी बंधधारा और दूसरी ओर रत्नत्रय की शुद्धिरूप वेगवती मोक्षधारा - ऐसी द्विरूपधारा में वर्तती हुई उनकी परिणति तीव्रगति से मोक्ष की ओर प्रयाण कर रही थी । एक रागधारा और दूसरी रत्नत्रयधारा - ऐसी दोनों धाराएँ एक साथ साधक की भूमिका में अपना-अपना कार्य करती हैं; उन दोनों धाराओं की भिन्नता को भेदज्ञानी जीव जानते हैं ।
वे राधारा को मोक्ष का कारण नहीं मानते और रत्नत्रयधारा को किचिंत् भी बन्ध का कारण नहीं मानते । यदि रत्नत्रय स्वयं बंध का कारण हो तो जगत में मोक्ष के उपाय का अभाव हो जाय; और यदि राग मोक्ष का कारण हो तो सर्व जीव मोक्ष प्राप्त कर लें । इसलिये जिनसिद्धान्त है कि 'जितने अंश में राग उतने अंश में बन्धन; और जितने अंश में रत्नत्रय उतने अंश में मोक्ष का उपाय ! (देखें