Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १ / ५५
इन्द्र-इन्द्राणी ने भी वैशाली आकर माता-पिता का सन्मान किया; दिग्कुमारी देवियाँ त्रिशला माता की सेवा करने लगीं। देव तो ठीक, नरक के जीवों ने भी दो घड़ी साता का वेदन किया और उससे तीर्थंकर महिमा जानकर गहरे विचार में मग्न होने से अनेक जीव चैतन्यविभूति को लक्ष्यगत करके सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुए । धन्य हैं तीर्थंकर के कल्याणक का प्रभाव और धन्य हैं उनको देखनेवाले !
अहा ! माता के उदर में विद्यमान वह जीव, अपर्याप्त दशा में जहाँ अभी हाथ-पाँव तथा आँख-कान की भी रचना नहीं हुई थी; तथापि मति-श्रुत-अवधि तीन ज्ञान का धारी था, सम्यग्दृष्टि था, आत्मानुभूति के वैभवसहित था, अतीन्द्रिय आनन्द का परिणमन हो रहा था; इसलिये वह आत्मा कल्याणकरूप था; उनकी वह गर्भावस्था भी कल्याणकारी थी । उससमय की भी उनकी देहातीत आत्मदशा जो यथार्थ स्वरूप जान ले उसका कल्याण हो जाये; उसे शरीर एवं आत्मा का भेदज्ञान होकर अतीन्द्रिय ज्ञान. अतीन्द्रिय सुख हो जाये इसका नाम है गर्भकल्याणक !
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अरे ! लक्ष में तो लो
वहाँ आँख-कान नहीं हैं; तथापि अतीन्द्रिय ज्ञान वर्तता है; वहाँ शरीर रचना नहीं हुई है; तथापि अतीन्द्रिय सुख वर्तता है; वहाँ अभी द्रव्यमन की रचना नहीं हुई है; तथापि सम्यग्दर्शन वर्तता है।
इसप्रकार आत्मा के ज्ञान, सुख, सम्यक्त्वादि भाव देहातीत हैं; इसलिये आत्मा स्वयं ही ज्ञान एवं सुखरूप परिणमने के स्वभाववाला है - ऐसा विश्वास होता है।
हे भाई ! तू इसप्रकार भगवान को पहिचान । ऐसा भगवान का जीवन है; इसलिये प्रत्येक प्रसंग में (गर्भ से लेकर मोक्ष तक) भगवान का आत्मा कैसे चैतन्यभावोंरूप वर्त रहा है, उसे तू जान ! मात्र संयोग या पुण्य का वैभव देखकर अटक मत । आत्मिक गुणों द्वारा प्रभु की सच्ची पहिचान करेगा तो तुझे भी अवश्य सम्यग्दर्शन-ज्ञानादि होंगे और तू भी मोक्ष के मार्ग में आ जाएगा । इसलिये बारम्बार कहते हैं कि - जो जानता जिनराज को चैतन्यमय शुद्धभाव से वह जानता निज आत्म को सम्यक्त्व लेता चाव से ॥
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