Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/४७ से उत्पन्न हुए। वहाँ यद्यपि उनको पुण्यजन्य वैभव अपार था; परन्तु अरे रे ! जो कषाय का फल है उसका कितना वर्णन करें।
कषायकलंक के उस फल का विस्तार करने से अथवा उसकी प्रशंसा सुनकर मुमुक्षु जीव लज्जित होते हैं, कि अरे ! हम अपने चैतन्य की शान्ति को साधनेवाले....उसके बीच कषाय तो कलंकरूप है। हम तो अपनी शान्ति का विस्तार करके चैतन्यवैभव की पूर्णता करें - यही हमारे लिये इष्ट है, अन्य कुछ भी प्रिय नहीं है। ___ ऐसी भावनापूर्वक स्वर्ग के अपार तथापि अध्रुव वैभवों में से सूर्यप्रभ देव असंख्य वर्ष तक रहे; परन्तु आखिर देवपद भी तो अध्रुव ही है न ! अध्रुव ऐसे रागभावों का फल भी अध्रुव ही होगा न ! इसलिये ऐसी देवगति को छोड़कर ध्रुवपद की साधना के ध्येय से वे धर्मात्मा मनुष्यलोक में अवतरित हुए। जिस अवतार में अपने चरित्र नायक महात्मा ने उत्तम सोलह भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया, अब आप उस अवतार का वर्णन पढ़ेंगे।
नन्द राजा (तीसरा पूर्वभव) (जिनदीक्षा, सोलहकारण भावना और तीर्थंकर प्रकृति का बंध,
पश्चात् सोलहवें स्वर्ग में) इस भरतक्षेत्र के पूर्वभाग में श्वेतनगरी है; वहाँ भव्यजीव मोक्षमार्ग की साधना करते हैं; वहाँ के जिनालयों की ऐसी अद्भुत शोभा है कि जिसे देखकर नास्तिक को भी श्रद्धा जागृत हो जाय । स्वर्ग से चयकर भगवान महावीर का जीव इसी नगरी के राजा नन्दिवर्धन का पुत्र हुआ; उसका नाम 'नन्दन' था (विभिन्न पुराणों के अनुसार नन्दन' तथा 'नन्द' – दोनों नाम स्वीकार किये गये हैं)। एक दिन वनविहार करते समय श्रुतसागर नाम के एक जैन आचार्य को देखकर उन नन्दराजा को हार्दिक प्रसन्नता हुई और मोक्षमार्ग श्रवण करने की अभिलाषा से पूछा - हे स्वामी ! इस संसार समुद्र से छूटकर जीव मोक्षसुख रूप किनारा किसप्रकार प्राप्त करता है ?
मुनिराज तदनुसार प्रसन्नतापूर्वक इसप्रकार बोले – मानों उनके श्रीमुख से अमृत ही झरता हो - हे भव्य ! जब आत्मा भेदज्ञान द्वारा सम्यक्त्वादि शुद्धभावों