Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 47
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/४५ इधर राजा प्रियमित्र विशाल राज्य के साथ-साथ शुद्धसम्यक्त्वसहित अणुव्रतों का भी पालन करते थे और जगत को यह प्रत्यक्ष कर रहे थे कि इतने बड़े राज्यभार के बीच भी आत्मा की आराधना हो सकती है। आत्मा की जितनी महिमा धर्मी के अन्तर में है उतनी किसी और को नहीं है। एकबार उनके शस्त्र भण्डार में चक्रवर्ती पद के वैभव का सूचक सुदर्शन चक्र प्रगट हुआ; परन्तु उससे वे किंचित् भी आश्चर्यचकित नहीं हुए। अहा! तीन लोक में सर्वश्रेष्ठ एवं सुन्दर ऐसा चैतन्यरत्न जिन्होंने स्वानुभूति से प्राप्त कर लिया है, उन महात्मा को जगत के जड़रत्नों से क्या आश्चर्य होगा ? मोक्षसाम्राज्य प्रदान कराने वाला सम्यग्दर्शनरूपसुदर्शनचक्र, जिनके अन्तर में निरन्तर चल रहा है, उन्हें बाह्य पौद्गलिक सुदर्शनचक्र की क्या महत्ता लगेगी ? वे धर्मात्मा प्रियमित्र जानते थे कि यह बाह्यवैभव की प्राप्ति कोई मेरी चैतन्य-आराधना का फल नहीं है; परन्तु आराधना के साथ रहने पर भी उससे भिन्न जाति का ऐसा जो राग, उसका यह फल है। अरे ! जिसके साथ रहनेवाले राग का भी ऐसा आश्चर्यकारी बाह्य फल है तो उस रागरहित आराधना के अन्तरंग फल का तो कहना ही क्या ? उस फल का स्वाद तो धर्मात्मा ही ले सकते हैं और उसके समक्ष जगत के समस्त वैभव बिल्कुल नीरस लगते हैं। __चक्ररत्न प्राप्त होने पर उन महाराजा प्रियमित्र ने विदेहक्षेत्र के छहों खण्डों की दिग्विजय की; छह खण्ड में रहनेवाले समस्त मनुष्य, विद्याधर एवं देवों को भी उन्होंने वश में कर लिया। चौदह रत्न एवं नवनिधान के उपरान्त सोलह हजार देव और बत्तीस हजार मुकुटधारी राजा उनकी सेवा करते थे; उनकी छयानवे हजार रानियाँ तथा छयानवे करोड़ पैदल, लाखों उत्तम गज आदि विशाल सेना थी; तथापि इस विषय सामग्री में जीव को तृप्ति देने का गुण कदापि नहीं है; यह सब तो आकुलता देनेवाले हैं। एक चैतन्यतत्त्व ही जीव को सच्ची तृप्ति एवं शान्ति प्रदान करता है' - ऐसा वे धर्मात्मा जानते थे; इसलिये भोगों में कहीं मूर्च्छित नहीं होते थे; जल में कमलपत्र की भांति अलिप्त रहते थे। - चक्रवर्ती के चौदह रत्न एवं नवनिधान आदि वैभव का वर्णन करके शास्त्रकार ऐसा बतलाना चाहते हैं कि हे जीवो ! देखो, यह सब तो उस जीव के रागादि औदयिक भावों का बाह्य फल है, उसीसमय उनके अन्तर में स्वाभाविक चेतना के जो भाव (सम्यक्त्वादि) वर्त रहे हैं, वे कैसे हैं और उनका फल कैसा सुन्दर

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