Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 14
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६ /१२ ऐसा पाप करना तुझे शोभा नहीं देता। इसलिये तू उस शाघ्र छोड़ दे।” इसप्रकार मुनिराज ने उसे अत्यन्त करुणापूर्वक हितोपदेश दिया। मुनिराज का कल्याणकारी उपदेश सुनकर वह भील अतिप्रभावित हुआ और उसने शिकार तथा मांसाहार का त्याग करके अहिंसाधर्म धारण किया । अहा ! साधु पुरुषों की क्षणभर की संगति भी जीवों को कितनी हितकारी होती है। वीतरागी सन्तों की संगति से किसे शान्ति नहीं मिलेगी ? अहो ! भवदुःख से संतप्त संसारी जीव की तृषा शान्त करने के लिये जैनदर्शन तो शान्तरस के सरोवर समान है, उसका सेवन करो । श्री मुनिराज के प्रताप से जिसने क्रूरता छोड़ दी है, ऐसा वह पुरुरवा भील भक्तिपूर्वक बहुत दूर तक मुनिराज के साथ चलता रहा और उन्हें नगर के मार्ग पर छोड़ कर लौट आया । अव्यक्त रूप से मानों वह कह रहा था कि प्रभो ! आपने तो मुझे भववन में से बाहर निकलने के लिये हितोपदेश दिया तो क्या मैं आपकी इतनी सेवा भी नहीं कर सकता ? बस, मुनिराज से पृथक् होकर अपने निवास स्थान पर पहुँचे उस भील को अब कहीं चैन नहीं पड़ता था। अब उसने लूटपाट छोड़ दी थी और जंगल में भटके हुए पथिकों की रक्षा करके उनको मार्ग बतलाता था। वह सोचता था ि अरे ! मुझमें कितनी क्रूरता थी और वे मुनिराज कितने शान्त परिणामी थे। उनके क्षणभर के संग से मेरा जीवन बदल गया। अब मुझे कितनी शान्ति मिल रही है – इसप्रकार वह बारम्बार विचारता था; शान्ति की शीतलता उसे तृप्त करती थी । इसप्रकार उसने शेष जीवन स्थूल अहिंसाव्रत के पालन में व्यतीत किया और अन्त में मरकर वह भील सौधर्मस्वर्ग में देव हुआ। पूर्वभव : सौधर्मस्वर्ग में देव कहाँ क्रूर भील ? और कहाँ देव ? किंचित् अहिंसा का पालन करके भील से देव हुए उस जीव को सौधर्मस्वर्ग में अनेक दिव्य ऋद्धियाँ प्राप्त हुईं और दो सागरोपम (असंख्यात वर्ष) तक पुण्यफल का उपभोग किया 1 अहा ! क्षणभर की किंचित् अहिंसा के पालन से एक अज्ञानी को भी असंख्य वर्षों का पुण्यफल प्राप्त हुआ, तो ज्ञानपूर्वक सर्वथा वीतरागी अहिंसा के उत्तम फल का तो कहना ही क्या ? अज्ञानभाव से पुण्य करके स्वर्ग में गये उस देव ने वहाँ की

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