Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/२७ (अरेरे! भावी तीर्थंकर ऐसे यह वासुदेव वर्तमान में हिंसा के हेतुभूत लौकिक विद्याएँ साधने में लगे हैं...परन्तु अब कुछ ही भव पश्चात् वे अलौकिक आत्मविद्या साधेगे तथा जगत के जीवों को भी उसे अलौकिक वीतरागी विद्या का बोध देंगे। तब उनकी सच्ची वीरता विकसित हो उठेगी और वे 'महा-वीर' कहलायेंगे।) . ___ शस्त्रविद्या साधकर दोनों भाईयों ने युद्ध के लिये प्रस्थान किया। घोर युद्ध प्रारम्भ हुआ। अश्वग्रीव और त्रिपृष्ठ दोनों शूरवीर योद्धा थे। युद्ध सम्बन्धी आर्तध्यान में वे इतने तल्लीन थे कि नरकगति के कर्म आत्मा में प्रविष्ट हो रहे हैं, उन्हें उसकी भी खबर नहीं रही। लाखों लोग आश्चर्य से, भय से तथा कुतूहल से युद्ध देख रहे थे। उनमें से कोई तो वैराग्य के परिणाम कर रहे थे कि अरे रे ! एक तुच्छ बात के लिये ये लोग लड़ रहे हैं.....और कोई मूर्ख जीव युद्ध में आनन्द मानकर हिंसानन्दी रौद्रध्यान कर-करके व्यर्थ ही अशुभकर्म बाँध रहे थे। जीवों के परिणामों की भी कैसी विचित्रता है ? कि एक ही प्रसंग पर भिन्न-भिन्न जीव भिन्न-भिन्न प्रकार के परिणाम करते हैं। इसीलिये तो कहा है कि - 'हैं जीव विध-विध, कर्म विध-विध, लब्धि हैं विध-विध अरे !' उसमें तू अपना कल्याण कर लेना, जगत की ओर देखने में मत रुकना।
युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व अश्वग्रीव विद्याधर के दूत ने आकर त्रिपृष्ठ से धमकी भरे वचन कहे; तब उनका उत्तर देते हुए त्रिपृष्ठ ने कहा – हे दूत ! तेरे राजा को आकाश में ऊँचे उड़ने तथा विद्याधरपने का अभिमान होगा; परन्तु आकाश में तो कौए भी उड़ते है; उसमें क्या है ? याद रखना कि तीर्थंकर और चक्रवर्ती कभी विद्याधरों के यहाँ नहीं होते, वे तो भूमिगोचरी राजाओं के यहाँ ही होते हैं। ___ तब अश्वग्रीव के दूत ने कहा – अरे, हमारे महाराज के पास दिव्यचक्र है; उसके प्रताप को क्या आप नहीं जानते ? सूर्य समान तेजस्वी वह चक्र बड़े-बड़े शत्रुओं का छेदन कर देता है....।
त्रिपृष्ठ ने उसे बीच में ही रोक कर कहा- हे दूत ! तू यहाँ से चला जा; अपने राजा की व्यर्थ प्रशंसा मत कर, युद्ध में उसकी परीक्षा हो जायेगी। रणभेरी बज उठी....दोनों ओर के योद्धा सावधान हो गये। जिसप्रकार मुमुक्षु जीवशुद्धोपयोग