Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 25
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/२३ मुनिपद को भूल गये। रत्नत्रय का अमूल्य निधान और उसके महा फल मोक्ष को भूलकर मानों उन्होंने अमूल्य रत्न को पानी के भाव बेच दिया। क्रोधवश उनके नेत्रों से अंगारे झरने लगे और वे बोल उठे - अरे दुष्ट ! तू मेरे तप की हँसी उड़ाता है; परन्तु देख लेना इस तप के प्रभाव से भविष्य में मैं तुझे सबके सामने छेद डालूँगा। इसप्रकार अज्ञानवश वे निदान कर बैठे कि मेरे इस तप का कोई फल हो तो मैं अगले जन्म में अद्भुत शारीरिक शक्ति प्राप्त करूँ और इस दुष्ट नन्द-विशाख को मारूँ। ऐसे निदानशल्य के कारण वे रत्नत्रय से भ्रष्ट हो गये तथा विद्याधर की विभूति देखकर मेरे तप के प्रभाव से मुझे ऐसी विभूति प्राप्त हो' इसप्रकार उसका भी निदान कर बैठे। रे विश्वनन्दि ! यह तुमने कैसी मूर्खता की ? रत्नत्रय के अमूल्य रत्न को तुमने क्रोध में आकर फेंक दिया ? रत्नत्रय के फल में शारीरिक बल की अभिलाषा करके तुम मिथ्यामार्गी हुए, चैतन्यवैभव को भूलकर तुमने पुण्यवैभव की चाह की और निदानशल्य से अपने आत्मा को भयंकर दुःख में डाल दिया। .. ___ इसप्रकार तीव्र क्रोधाग्नि में जिसने अपने सम्यक्त्वरत्न को जला दिया है, ऐसे उन विश्वनन्दि मुनि का जीव, निदानशल्यसहित मरकर, तप के शेष पुण्यप्रताप से महाशुक्र नामक दसवें स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ सोलह सागर तक उसने भोगलालसा से इन्द्रसमान वैभव का उपभोग किया। अनुपम जैनव्रत प्राप्त करके भी उनका पूरा लाभ वह नहीं ले सका। जिसप्रकार कोई मूर्ख पुरुष अमृतपान करके उसका वमन कर दे, तदनुसार उसने रत्नत्रयरूपी अमृत का निदानशल्य द्वारा वमन कर दिया और पुनः संसार में भटकने लगा। (रे भवितव्य ! यह जीव है तो तीर्थंकर होनेवाला....किन्तु....भरतक्षेत्र का 'चौबीसवाँ' तीर्थंकर होने वाला है; और कालक्रमानुसार चौबीसवें तीर्थंकर के अवतार में अभी दीर्घकाल लगेगा....इसलिये बीच का समय संसार भ्रमण में बिताने के लिये ही निदानशल्य किया।) पश्चात् नन्द-विशाख का जीव भी किसी कारणवश वैराग्य प्राप्त करके मुनि हुआ। जिनदीक्षा लेकर उसने तप किया; परन्तु एक बार आकाशमार्ग से जाते हुए किसी विद्याधर की आश्चर्यजनक विभूति देखकर वह भोगों की वांछा से ऐसा

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