Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१५ करके सांख्यमत का प्रवर्तन किया। उस मूर्ख जीव ने कुतर्क द्वारा कुमार्ग चलाया
और मिथ्यामार्ग के सेवन से अपने आत्मा को असंख्यात भवतक घोर संसारदुःखों में डुबोया। इसलिये शास्त्रकार कहते हैं कि - ___ “अरे जीवो! मिथ्यात्व का पाप मेरु समान है; उसके समक्ष अन्य पाप तो राई जैसे हैं; - ऐसा जानकर प्राण जायें तथापि मिथ्यात्व का सेवन मत करना। सिंह, सर्पादि के विष से तो एकबार मरण होता है, परन्तु कुमार्ग के सेवन से तो जीव भव-भव में अपार दुःख भोगता है। इसलिये हे भव्यजीवो! भयंकर भवदुःखों से छूटने की तथा शाश्वत आत्मसुख प्राप्त करने की इच्छा हो तो तुम शीघ्र कुमार्गरूप मिथ्यात्व को छोड़ो और जिनमार्ग के सेवन द्वारा सम्यक्त्व को अंगीकार करो।"
पूर्वभव : पाँचवें स्वर्ग में देव अरेरे! तीर्थंकर का कुल और बाह्य में जिनदीक्षा प्राप्त करके भी उस मरीचि ने सम्यक्त्व ग्रहण नहीं किया, आत्मज्ञान नहीं किया और मिथ्यात्वसहित कुतप के प्रभाव से मरकर पाँचवें स्वर्ग में देव हुआ। मिथ्यात्वसहित होने के कारण स्वर्ग में उसके परिणाम कुटिल थे। स्वर्ग के दिव्य वैभव में भी उसे सुख नहीं मिला। कहाँ से मिलता ? सुख विषयों में कहाँ है ? सुख तो आत्मा में है; उसे जाने बिना सुख का वेदन कहाँ से होगा ? दस सागरोपम जितने असंख्य वर्षों तक वह जीव स्वर्ग में रहा और अनेक देवांगनाओं सहित स्वर्ग के दिव्य इन्द्रियभोग भोगे; परन्तु उससे क्या ? स्वर्गीय सुख दूसरी वस्तु है और आत्मिक शान्ति दूसरी । मूर्ख जीव ही शान्तिरहित स्वर्गीय सुखों को सच्चा सुख मानते है। आत्मिक शान्ति का अनुभव करनेवाले धर्मात्मा बाह्य विषयों में कदापि सुख की कल्पना नहीं करते – फिर भले ही वे सुख स्वर्ग के ही क्यों न हों ?
पूर्वभव : ब्राह्मणकुमार प्रियमित्र और प्रथम स्वर्ग में देव
असंख्य वर्षों तक स्वर्गलोक में रहकर भी लेशमात्र आत्मसुख का आस्वादन किये बिना अन्त में वह जीव (भूतकाल का मरीचि और भविष्य के महावीर) वहाँ से च्युत हुआ। संसार तो संसरणरूप है, इसलिये वह संसारी जीव देवगति से संसरित होकर मनुष्यगति में एक ब्राह्मण का पुत्र हुआ; उसका नाम था प्रियमित्र । पूर्वभव के मिथ्या संस्कारवश अब भी वह मिथ्यामार्ग में प्रवर्तता था। मिथ्यातप