Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 18
________________ - - जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/१६ के क्लेशपूर्वक मरकर वह जीव प्रथमस्वर्ग में देव हुआ। अपने हिताहित के विवेकरहित वह देव स्वर्ग में भी सुखी नहीं था। दो सागर तक देवोपनीत भोगों में ही काल गँवाकर, भोगों की लालसासहित वह स्वर्ग से मनुष्यलोक में गिरा। 'अरे रे ! असंख्यात वर्षों तक भोगे हुए यह दिव्य भोग अब छूट जायेंगे। - ऐसे शोक से संतप्त आर्तध्यानपूर्वक वह देवलोक से च्युत हुआ। पूर्वभव : ब्राह्मणकुमार पुष्पमित्र और दूसरे स्वर्ग में देव . प्रथम स्वर्ग से च्युत हुआ वह जीव इस भारतवर्ष के स्थूणागार नगर में एक ब्राह्मणपुत्र हुआ, उसका नाम था पुष्पमित्र । बालक पुष्पमित्र एकबार खेल रहा था कि एक संन्यासी-बाबा ने उसे लालच दिखाया कि तू हमारे साथ चल, तुझे स्वर्ग का सुख मिलेगा।' स्वर्ग-मोक्ष का भेद नहीं जाननेवाले उस अविवेकी बालक ने स्वर्ग के लालच से बाल्यावस्था में ही कुतप धारण किया; (भोगहेतु धर्म को, नहिं कर्मक्षय के हेतु को।) अरे रे ! एक भावी तीर्थंकर का आत्मा भी मिथ्यामार्ग के संस्कारवश कुमार्ग में फँसकर संसार में कैसा भटक रहा है ? दीर्घकाल तक मिथ्यात्वसहित कुतप का क्लेश सहन करके वह मरा और दूसरे ईशान स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ उसने अप्सराओं द्वारा होनेवाले नृत्य-गानादि देखने में दीर्घकाल गँवाया। धर्मरहित हीनपुण्य क्षीण होने पर स्वर्ग ने उसे च्युत कर दिया। जिसप्रकार सोते हुए महावत को मदोन्मत्त हाथी पछाड़ देता है, उसीप्रकार मोहनिद्रा में सोते हुए उस देव को पुण्यरूपी हाथी ने नीचे पछाड़ दिया। पूर्वभव : अग्निसह ब्राह्मण और तीसरे स्वर्ग में देव दूसरे स्वर्ग सेच्युत हुआ वह देव, श्वेतिकानगरी में अग्निसह नाम का ब्राह्मणपुत्र हुआ; वहाँ भी पूर्वभव के मिथ्या संस्कार के कारण संन्यासी होकर मिथ्यातप का आचरण करके जीवन बिताया और पुन: तीसरे स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ सात सागर की आयु अप्सराओं के साथ व्यतीत कर दी; परन्तु आत्महित किंचित् नहीं साधा। ___ अरे रे ! जैनधर्म को प्राप्त नहीं हुआ वह जीव, भावी तीर्थंकर होने पर भी, अज्ञान के कारण संसार की गतियों में कैसा भटक रहा है ? क्षण में मनुष्यलोक और क्षण में स्वर्गलोक में जाता है। पुण्य कर-करके बारम्बार स्वर्ग में जाने पर

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