Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 09
Author(s): Haribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation
View full book text
________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६ / १८.
जिसका आशाचक्र टूट गया है, जिसका पुण्यदीपक बुझ जाने की तैयारी में है और जिसके मानसिक संताप का कोई पार नहीं है - ऐसा वह देव मरण को निकट देखकर अत्यन्त भयभीत हुआ और हताशापूर्वक भोगों की चिन्ता में आर्तध्यान करने लगा कि अरे रे ! मैं असहायरूप से यह सब छोड़कर मर जाऊँगा ? मैं अब किसकी शरण लूँ ? कहाँ जाऊँ ? किसप्रकार इन भोगों की रक्षा करूँ ? क्या उपाय करके मृत्यु को रोकूँ ? यहाँ से मरकर मैं न जाने किस गति में जाऊँगा ? ... वहाँ मेरा क्या होगा ? ... कौन साथ देगा ? वास्तव में पुण्य समाप्त होने पर कोई साथ नहीं देता । देवांगनाएँ देखती रहीं और देव के प्राण छूट गये ।
इसप्रकार विलाप करता हुआ वह देव ' क्षीण पुण्य से मनुष्यलोक में' आ पड़ा और अनेक भवों में भटकता फिरा ।
पूर्वभव : एकेन्द्रियादि पर्यायों में असंख्यभवों का अनन्तदुःख
जिसके नीच पुण्य का अस्त हुआ है और जो मिथ्यात्व की आग में जल रहा है ऐसा वह भील का जीव (भावी महावीर भगवान का जीव ) बारम्बार स्वर्ग-मनुष्य के भवों में भ्रमण करता हुआ तथा दुःख भोगता हुआ संसार में भटक रहा है। वह स्वर्ग से भ्रष्ट होकर कितनी ही निचली त्रस पर्यायों में भटका; अन्त में मिथ्यात्व - रस की पराकाष्ठा के फलस्वरूप स्थावर - एकेन्द्रिय पर्याय में गया और वहाँ दो घड़ी में हजारों बार जन्म-मरण कर-करके दुःखी हुआ। इसप्रकार असंख्यात बार भवभ्रमण कर-करके उसने कल्पनातीत दुःख सहन किये । सिद्ध भगवन्तों का सुख और एकेन्द्रिय जीवों का दुःख - ये दोनों वचनातीत हैं । दीर्घकाल तक उस जीव ने स्थावर पर्यायों में इतने अधिक दुःख भोगे कि जिनका वर्णन शास्त्रकार भी नहीं कर सकते। जिसप्रकार सिद्धों का सुख किन्हीं संयोगों से नहीं होता, यह 'स्वभावसिद्ध' है; उसीप्रकार निगोद के जीवों का दुःख भी संयोग से नहीं हुआ है, परन्तु भावकलंक की प्रचुरतारूप उनके अपने परिणाम से हुआ है, इसलिये 'परिणामसिद्ध' है ।
किसी मनुष्य को धधकती हुई अग्नि में डालकर लौहरस के साथ गला दे, वह दुःख भी जिसके समक्ष अत्यल्प माना जाय ऐसे घोरातिघोर दुःख निगोद में एकेन्द्रिय जीवों को होते हैं। ऐसे दुःख उस जीव ने मिथ्यात्व के कारण अनेक भवों तक भोगे ।