Book Title: Gyansara Author(s): Maniprabhsagar, Rita Kuhad, Surendra Bothra Publisher: Prakrit Bharati Academy View full book textPage 8
________________ प्रवेश आत्मा परमात्म पद की सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त करे, इसी एकमात्र लक्ष्य से उपाध्याय श्री यशोविजयजी म. ने अध्यात्म-प्राण ज्ञानसार ग्रन्थ की रचना की है। हमने अपनी जीवन पद्धति द्वारा संसार का भवभ्रमण ही बढ़ाया है ! हमने अपनी ही अविचारी प्रवृतियों द्वारा चोर और लुटेरों को निमंत्रित किया है। आत्मगुणों का विनाश और सांसारिक प्रवृत्तियों का विस्तार ही हमारे पुरुषार्थ का केन्द्र बना है। जिन आत्मगुणों के हम स्वामी हैं, जिनका विकास करके हम अपनी संसारयात्रा को विराम दे सकते हैं उन ज्ञान, दर्शन और चारित्र को तो जैसे हमने निष्कासित कर दिया है और इसी कारण आज हम न चाहते हुए भी जन्म और मृत्यु के पाटों के बीच भयंकर रूप से फंसे हुए हैं। हमारी इस भयानक संसार यात्रा के लिये हम स्वयं उत्तरदायी हैं और इसी को उत्तराध्ययन सूत्र में एक गाथा द्वारा अभिव्यक्त किया गया है : अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणु अप्या मे नंदणं वणं॥ हे आत्मन् ! तू स्वयं ही नरक की वैतरणी नदी है और तू स्वयं ही अद्भुत चमत्कारी कामधेनु गाय है, तू ही शाल्मली वृक्ष है तो तू ही स्वर्ण का नंदन वन है। भयंकर और जहरीले कषायों को सम्मान के साथ आमंत्रित करके हमने स्वयं को नरकगामी बनाया है। हमारी यह अनादिकाल से चली आ रही संसारयात्रा समाप्त हो इसी बात को लक्ष्य में रखते हुए यह ग्रन्थ निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ के माध्यम से किस स्थिति में हम आत्म-शुद्धि की ओर गतिशील बन सकते हैं उन माध्यमों का दिग्दर्शन करवाया गया है।Page Navigation
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