Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

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Page 17
________________ गुणस्थान विवेचन लिये होते हैं। यहाँ पुण्य-पाप के कारण-कार्यादिक विशेष जानने से वे दोनों कार्य दृढ़ता लिये होते हैं। अत: इसका अभ्यास करना / इसप्रकार प्रथमानुयोग के पक्षपाती को इस शास्त्र के अभ्यास में सन्मुख किया। 13. प्रश्न : अब चरणानुयोग का पक्षपाती कहता है कि जो इस शास्त्र में कथित जीव-कर्म का स्वरूप है, वह जैसा है, वैसा ही है, उसको जानने से क्या सिद्धी होती है ? यदि हिंसादिक का त्याग करके व्रतों का पालन किया जाय, उपवासादिक तप किये जायें, अरहन्तादिक की पूजा, नामस्मरण आदि भक्ति की जाय, दान दिया जायें, विषय-कषायादिक से उदासीन होना इत्यादिक जो शुभ कार्य किये जायें, तो आत्महित हो; इसलिये उनका प्ररूपक चरणानुयोग का उपदेश करना चाहिए। उत्तर : उसको कहते हैं कि - हे स्थूलबुद्धि ! तूने व्रतादि शुभ कार्य कहे, वे करनेयोग्य ही हैं; किन्तु वे सर्व सम्यक्त्व बिना ऐसे हैं जैसे अंक बिना बिंदी। जीवादिक का स्वरूप जाने बिना सम्यक्त्व का होना ऐसा है जैसे बाँझ का पुत्र / अत: जीवादिक का स्वरूप जानने के लिये इस शास्त्र का अभ्यास अवश्य करना चाहिए / तथा तूने जिसप्रकार व्रतादिक शुभ कार्य कहे और उनसे पुण्यबंध होता है; ऐसा कहा वह तो ठीक है, उसीप्रकार जीवादिक का स्वरूप जाननेरूप ज्ञानाभ्यास है, वह भी सबसे बड़ा प्रधान शुभ कार्य है। इसी से सातिशय पुण्यबन्ध होता है और उन व्रतादिक में भी ज्ञानाभ्यास की ही मुख्यता है, उसे ही कहते हैं - जो जीव प्रथम, जीवसमासादि विशेष जानकर पश्चात् यथार्थज्ञान करके हिंसादिक का त्यागी बनकर व्रत धारण करे, वही व्रती है। जीवादिक के विशेषों को जाने बिना कुछ हिंसादिक के त्याग से अपने को व्रती माने तो वह व्रती नहीं है। इसलिये व्रत पालन में भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है। ___तप दो प्रकार का है - बहिरंग तप और अन्तरंग तप / जिससे शरीर का दमन हो, वह बहिरंग तप है और जिससे मन का दमन हो, वह अन्तरंग तप है; इनमें बहिरंग तप से अन्तरंग तप उत्कृष्ट है / उपवासादिक तो बहिरंग तप हैं, ज्ञानाभ्यास अन्तरंग तप है। सिद्धान्त में भी छह प्रकार के अन्तरंग

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