Book Title: Gunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Author(s): Yashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
Publisher: Patashe Prakashan Samstha

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Page 15
________________ गुणस्थान विवेचन श्री अरहन्तदेव, जिनवाणी, निर्ग्रन्थ गुरुओं के प्रसाद से तथा मूलग्रन्थकर्ता श्री नेमिचन्द्र आदि आचार्यों के प्रसाद से यह कार्य सिद्ध हो। अब इस शास्त्र के अभ्यास में जीवों को सन्मुख करते हैं - हे भव्य जीव ! तुम अपने हित की वांछा करते हो, तो तुमको जिसप्रकार हित बने उसप्रकार ही इस शास्त्र का अभ्यास करना। आत्मा का हित मोक्ष है / मोक्ष बिना अन्य जो है, वह परसंयोगजनित है, विनाशीक है, दुःखमय है और मोक्ष ही निजस्वभाव है,अविनाशी है, अनंत सुखमय है। इसलिए तुम्हें मोक्षपद की प्राप्ति का उपाय करना चाहिए। ___ मोक्ष के उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र हैं। इनकी प्राप्ति जीवादिक का स्वरूप जानने से ही होती है; उसे कहता हूँ - जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। बिना जाने श्रद्धान का होना आकाश के फूल के समान है। प्रथम जाने, फिर वैसी ही प्रतीति करने से श्रद्धान को प्राप्त होता है। इसलिये जीवादिक का जानना, श्रद्धान होने से पूर्व ही होता है, वही उनके श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन का कारणरूप जानना। श्रद्धान होने पर जो जीवादिक का जानना होता है, उसीका नाम सम्यग्ज्ञान है। श्रद्धानपूर्वक जीवादि को जानते ही जीव स्वयमेव उदासीन होकर हेय का त्याग, उपादेय का ग्रहण करता है, तब सम्यक्चारित्र होता है; अज्ञानपूर्वक क्रियाकाण्ड से सम्यक्चारित्र नहीं होता है। ___ इसप्रकार जीवादिक को जानने से ही सम्यग्दर्शनादि मोक्ष के उपाय की प्राप्ति होती है - ऐसा निश्चय करना चाहिए। इस शास्त्र के अभ्यास से जीवादि का जानना यथार्थ होता है। जो संसार है, वह जीव और कर्म का सम्बन्धरूप है तथा विशेष जानने से इनके सम्बन्ध का अभाव होता है, वही मोक्ष है / इसलिये इस शास्त्र में जीव और कर्म का ही विशेष निरूपण है। अथवा जीवादिक षट् द्रव्य, सप्त तत्त्वादिक का भी इसमें यथार्थ निरूपण है, अत: इस शास्त्र का अभ्यास अवश्य करना। अब यहाँ अनेक जीव इस शास्त्र के अभ्यास में अरुचि होने के कारण

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