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गया, वे वज्राहत की भान्ति दुःखसागर में डूब गए। श्री गौतम जी महाराज को मार्मिक वेदना हुई । वे पितृवियोगजन्य दुःख से पीड़ित हुए बालक की भाँति विलाप करते हुए रुदन करने लगे । अन्त में वे सम्भले । वीतरागता के आदर्श ने उनका मार्गदर्शन किया । “संसार में न मैं किसी का हूँ और न कोई मेरा है, अज्ञानी जीव व्यर्थ ही मोह की दलदल में फंसा रहता है ।" का परम सत्य श्री गौतम जी महाराज के सामने साकार होकर खड़ा हो गया। उनकी अन्तर्वीरणा संकृत हो उठी
दुनिया के बाज़ार में, चलकर आया एक । मिले अनेकों बीच में, अन्त एक का एक ॥
इस सात्त्विक तथा धार्मिक विचारणा की पराकाष्ठा के सुदर्शन चक्र ने मोह* के कर्म सेनापति को सदा के लिये शान्त कर दिया । सेनापति मोह के गिरते ही उसके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय नामक अन्य कर्म सैनिक भी भाग उठे । इन कर्मशत्रुयों के परास्त होते ही श्री गौतम स्वामी को केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई । श्री गौतम जी महाराज की अन्तरात्मा केवल - ज्ञान के आलोक से जगमगा उठी ।
*घातिक और अघातिक दो तरह के कर्म होते हैं। ज्ञान, दर्शन आदि श्रात्मगुणों का जो ह्रास करता है, वह घातिक और जो आत्मा के इन स्वाभाविक गुणों का नाश नहीं करता वह अघातिक कर्म होता है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिक कर्म हैं । वेदनीय, आयु नाम और गोत्र इन कर्मों की अघातिक संज्ञा है । केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिये घातिक कर्मों काक्षय रकना होता है। ज्ञानवरणीय (ज्ञान का आच्छादन करने वाला), दर्शनावरणीय (दर्शन - सामान्य