Book Title: Dipmala Aur Bhagwan Mahavir
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 49
________________ ३२ वैराग्य, प्रेम, सहानुभूति, सद्भावना, सदाचार, सेवा और परोपकार के दीपक जला कर अपने आत्मा को प्रकाशित किया करते थे ओर देखा करते थे कि हमारी आत्मा में कहाँ कहाँ निंदा, चुगली, अप्रामाणिकता ( बेईमानी) और धूर्तता का मल भरा पड़ा है ? अपना आपा देखने के बाद उसे साफ किया करते थे, अपनी आत्मा के विकार दूर हटाकर उसे स्वच्छ तथा पवित्र बनाया करते थे, प्रभुभक्ति, आत्मचिन्तन और सदाचार के सरोवर में गोते लगाया करते थे, किन्तु आज उससे बिल्कुल उलटा होता है । आज की दीपमाला की तो बात ही निराली है । आज आत्मा में भले ही सैकड़ों पाप नाचते हों, आत्ममन्दिर भले ही सड़ता रहे, उस में कितनी भी दुर्गन्ध उठ रही हो, उसकी कोई चिन्ता नहीं की जाती, किन्तु मकानों को चमकाने के लिये, साफ-सुथरा बनाने के लिये सैकड़ों और हजारों रुपये पानी की तरह बहा दिये जाते हैं । पड़ौस में कोई विधवा भूखी मर रही हो, उसके बच्चे बिलबिला रहे हों, भूख से अधमुए हो रहे हों, तो भी उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता, किन्तु फूलझड़ियों और पटाखों के लिए हज़ारों का खून कर दिया जाता है । अपने ही मुहल्ले में कोई ग़रीब दम तोड़ रहा हो, दर्द से कराह रहा हो, चीखें भी मारता हो तथापि उसका कोई ख्याल नहीं किया जाता, किन्तु स्वयं मिठाइयाँ खाने में, गुलछर्रे उड़ाने में बेसुध हुए जाते हैं। मैं पूछता हूँ कि क्या इसी का नाम दीपमाला है ? पड़ौस में किसी का जीवन-दीप बुझ रहा है और स्वयं दीवारों या नालियों में दीप जगाने जाते हैं, क्या यही था सन्देश दीपमाला का ? नहीं नहीं ! दीपमाला यह नहीं कहती | दीपमाला का सन्देश बड़ा निराला और अनुपम है, मगर आज • .

Loading...

Page Navigation
1 ... 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102