Book Title: Dipmala Aur Bhagwan Mahavir
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 55
________________ चरम परिणति है। अहिंसा और सत्य जब पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं तो आत्मा का अन्तर्हित तेज अपने नैसर्गिक रूप में निखर उठता है, चमकने लगता है और ऐसा प्रतीत होता है, मानों वह आत्मिक तेज आत्मा में समा नहीं रहा है । इसी कारण बाहर निकल कर प्रभामण्डल के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है ! इस प्रकार वह भामण्डल अपरिमित आन्तरिक तेज की विद्यमानता का साक्षी बन जाता है। जो मनुष्य भामण्डल को प्राप्त करने का अभिलाषी है, और जिसे भामण्डल से मंडित होने की लालसा है वह उसे अवश्य प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक आत्मा में उसे प्राप्त कर लेने की शक्ति विद्यमान है। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि प्रत्येक आत्मा में स्वाभाविक रूप से भामण्डल विद्यमान ही है, किन्तु विकारजनित मलीनता ने उसे आच्छादित कर रखा है। मनुष्य के हाथ की बात है कि वह आत्मशोधक सामग्री जुटाए, अपने विकारों को दूर करे और उस अनिर्वचनीय आलोकपुज को विशुद्ध रूप में प्रकट करे। जीवननिर्मात्री सामग्री को जुटाये बिना जीवननिर्माण का स्वप्न साकार नहीं हो सकता और जीवननिर्माण के बिना भामण्डल की प्राप्ति नहीं हो सकती । अतएव भामण्डल के अभिलाषी मानव को अहिंसा, सत्य, त्याग, वैराग्य आदि के राजपथ पर अग्रसर होना होगा । दीपकों का द्रव्य प्रकाश यदि भामण्डल अर्थात् भावप्रकाश की प्राप्ति का पथ-प्रदर्शक बन गया, मानव ने मानवता के मन्दिर को उपलब्ध कर ईर्षा-द्वेष आदि अपने जीवन-विकारों को नष्ट कर लिया तो समझ लीजिए कि दीपमाला मनाने का ध्येय सफल हो गया।

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