Book Title: Dipmala Aur Bhagwan Mahavir
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 77
________________ अभिमान से, क्रोध से, प्रमाद से, कुष्ठ आदि रोग से, और आलस्य से । ३३- अह पन्नरसहिं ठाणेहिं, सविणीए चि बुच्चइ । नीयाविशी अचवले, अमाई अकुऊहले ॥ ३४- अप्पं च अहिक्खिवई, पबन्धं च न कुव्वई । मेरिज्जमाणो भयइ, सुयं लद्धं न मज्जइ ॥ ३५- न च पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पइ । अप्पियस्साऽवि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासइ ॥ ३६- कलहडमरवज्जिए, बुद्धे अभिजाइगे । .. हिरिमं पडिसंलीणे, सविणीए ति वुच्चइ ॥ (उत्तरा० अ० ११-१०-१३) नीचे के पन्द्रह कारणों से बुद्धिमान मनुष्य सुविनीत कहलाता है—उद्धत न हो--नम्र हो, चपल न हो--स्थिर हो । मायावी न हो-सरल हो, कुलूहली न हो-गम्भीर हो, किसी का तिरस्कार न करता हो, क्रोध को अधिक समय तक न रखता हो, शीघ्र ही शान्त हो जाता हो, अपने से मित्रता का व्यवहार रखने वालों के प्रति पूरी सद्भावना रखता हो, शास्त्रों के अध्ययन का गर्ग न करता हो, मित्रों पर क्रोधित न होता हो, अप्रिय मित्र को भी पीठ पीछे भलाई ही करता हो, किसी प्रकार का झगड़ा फिसाद न करता हो, बुद्धिमान हो, अभिजात अर्थात् कुलीन हो, लज्जाशील हो, एकाग्र हो । ३७- अभिक्खणं कोही भवइ, पबन्धं च पकुबइ । मेतिज्जमाणो वमइ, सुयं लभ्रूण मज्जइ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102