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६३ - - जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । पावाडं मेहावी, अज्झष्पेण समाहरे ||
एवं
( सूयगडांग अ० ८–१६ ) जैसे कछुआ आपत्ति से बचने के लिए अपने अंगों को अपने शरीर में सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार पण्डित जन भौ विषयों की ओर जाती हुई अपनी इन्द्रियों को आध्यात्मिक ज्ञान से सिकोड़ कर रखें ।
६४ - अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नन्दनं वणं ॥
( उत्तरा० अ० २०–३६ ) अपनी आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी, कूट शाल्मली वृक्ष है, और अपनी आत्मा ही स्वर्ग की कामधुग् धेनु तथा मन्दनवन है ।
६५ - अप्पा करता विकतो म, दुहासा व सुहाण य । अप्पा मित्तममितं च, दुप्पट्ठव सुप्पट्ठियो ||
( उत्तरा० अ० २० – ३७ ) आत्मा ही अपने दुःखों और सुखों का कर्त्ता तथा भोक्ता है । अच्छे मार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना मित्र है, और बुरे मार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना शत्रु है 1 ६६ - अप्पा चैव दमेयब्यो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दन्तो सही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥
( उत्तरा० अ० १ - १५ ) अपने आपको ही दमन करना चाहिये । बास्तव में अपने