Book Title: Dipmala Aur Bhagwan Mahavir
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 84
________________ जैसे किंपाक फलों का परिणाम अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार भोगे हुए भोगों का परिणाम भी अच्छा नहीं होता। ५७.- चीराजिणं नगिणिणं, जड़ी संघाडि मुंडिणं । एयाणि वि न तोयन्ति, दुस्सीलं परियागयं ॥ (उत्तरा० अ०५-२१) मृगचर्म, नग्नत्व, जटा, संघाटिका, (बौद्ध भिक्षुओं का सा उत्तरीय वस्त्र), और मुण्डन आदि कोई भी धर्म चिन्ह दुःशील भिक्षु की रक्षा नहीं कर सकते । ५८-- संबुज्झह ! कि न बज्झह ? __ संबोही खलु पेच्च दुल्लहा । नो हूवणमन्ति राइनो, नो सुलभं पुणरचि जीवियं ॥ (सूयगडांग अ०३-१) समझो, इतना क्यों नहीं समझते ? परलोक में सम्यक बोधि का प्राप्त होना बड़ा कठिन है। बीती हुई रात्रियाँ कभी लौट कर नहीं आतीं। मनुष्य-जीवन का दोबारा पाना आसान नहीं। ५६- वित्तं पसवो नाइओ, तं बाले सरणं ति मन्नइ । एए मम तेसु वि अहं, नो ताणं सरणं न विज्जइ ।। (सूयगडांग अ० २-१६) मूर्ख मनुष्य धन, पशु और जातिवालों को अपनी शरण मानता है और समझता है कि-'ये मेरे हैं' और 'मैं

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