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आप को दमन करना ही कठिन है । अपने आपको दमन करने वाला इस लोक में तथा परलोक में सुखी होता है । ६७- वरं मे अप्पा दन्तो, संजमेण तवेण य । माऽहं परेहिं दम्मन्तो, बन्धणेहिं वहेहि य ॥
( उत्तरा० अ० १-१६) दूसरे लोग मेरा वध, बन्धनादि से दमन करें, इसकी अपेक्षा तो मैं संयम और तप के द्वारा अपने-आप ही अपना (आत्मा का) दमन करू', यह अच्छा है। ६८-. जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे।। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जत्रो ॥
(उत्तरा० अ०६-३४) जो वीर दुर्जय संग्राम में लाखों योद्धाओं को जीतता है, यदि वह एक मात्र अपनो आत्मा को जीत ले, तो यह उसकी सर्वश्रेष्ठ विजय है। ६६-- न तं अरी कंठ-छेत्चा करेइ,
जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहिइ मच्चुमुहं तु पत्ते,
पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥
( उत्तरा० अ० २०-४८) सिर काटने वाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना कि दुराचरण में लगी हुई अपनी अत्मा करती है । दयाशून्य दुराचारी को अपने दुराचारों का पहले ध्यान नहीं आता, परन्तु जब वह मृत्यु के मुख में पहुंचता है, तब अपने सब दुराचरणों को याद कर-कर फ्छताता है।