Book Title: Dipmala Aur Bhagwan Mahavir
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 91
________________ ७४ मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है, कर्म से ही वैश्य होता है, और शुद्र भी अपने कृत कर्मों से ही होता है । अर्थात् वर्ण-भेद जन्म से नहीं होता । जो जैसा अच्छा या बुरा कार्य करता है, वह वैसा ही ऊँचा नीचा हो जाता है । ८० - कहं चरे ? कहं चिट्ठे १, कहमासे १ कहं सए ? बन्धइ ? || ( दश० अ० ४-७ ) भन्ते ! मानव कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोये ? कैसे भोजन करे ? कैसे बोले ? जिससे कि पाप कर्म का बन्धन न हो ? कहं भुंजन्तो भासन्तो, पावं कम्मं न ८१ - जयं चरे जयं चिट्ठ े, जयमासे जयं सए । जयं भुंजन्तो भासन्तो, पावं कम्मं न बन्धः ॥ ( दश० अ० ४ -८ ) आयुष्मन् ! मानव विवेक से चले, विवेक से खड़ा हो, विवेक से बैठे, विवेक से सोये, विवेक से भोजन करे, और विवेक से ही बोले, तो पाप कर्म नहीं बन्ध सकता । ८२ -- पढमं नाणं तत्र दया, एवं अन्नाणी किं काही, किं वा चिट्ठइ सव्वसंजए । नाहिइ सेय - पावगं ॥ ( दश० अ० ४ - १० ) प्रथम ज्ञान है, पीछे दया । इसी क्रम पर समग्र त्यागी वर्ग अपनी संयम यात्रा के लिए ठहरा हुआ है । भला, अज्ञानी मनुष्य क्या करेगा ? श्रेय तथा पाप को वह कैसे जान सकेगा ?

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