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मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है, कर्म से ही वैश्य होता है, और शुद्र भी अपने कृत कर्मों से ही होता है । अर्थात् वर्ण-भेद जन्म से नहीं होता । जो जैसा अच्छा या बुरा कार्य करता है, वह वैसा ही ऊँचा नीचा हो जाता है ।
८० - कहं चरे ? कहं चिट्ठे १, कहमासे १
कहं सए ?
बन्धइ ? ||
( दश० अ० ४-७ )
भन्ते ! मानव कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोये ? कैसे भोजन करे ? कैसे बोले ? जिससे कि पाप कर्म का बन्धन न हो ?
कहं भुंजन्तो भासन्तो, पावं कम्मं
न
८१ - जयं चरे जयं चिट्ठ े, जयमासे जयं सए । जयं भुंजन्तो भासन्तो, पावं कम्मं न बन्धः ॥
( दश० अ० ४ -८ )
आयुष्मन् ! मानव विवेक से चले, विवेक से खड़ा हो, विवेक से बैठे, विवेक से सोये, विवेक से भोजन करे, और विवेक से ही बोले, तो पाप कर्म नहीं बन्ध सकता ।
८२ -- पढमं नाणं तत्र दया, एवं अन्नाणी किं काही, किं वा
चिट्ठइ सव्वसंजए । नाहिइ सेय - पावगं ॥
( दश० अ० ४ - १० ) प्रथम ज्ञान है, पीछे दया । इसी क्रम पर समग्र त्यागी वर्ग अपनी संयम यात्रा के लिए ठहरा हुआ है । भला, अज्ञानी मनुष्य क्या करेगा ? श्रेय तथा पाप को वह कैसे जान सकेगा ?