Book Title: Dipmala Aur Bhagwan Mahavir
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 98
________________ ८१ कर्म करता है, उस के फल को स्वयं भोग लेता है । कर्मफ भुगतान में किसी भी प्रकार की हेराफेरी नहीं हो सकती । राजा हो या रंक, ज्ञानी हो या अज्ञानी, धनी हो या निर्धन, मूर्ख हो या विद्वान, योगी हो या भोगी, कोई भी क्यों न हो, कर्म बराबर सब को अपना फल देता, किसी को छोड़ता नहीं, कर्मराज के शासन में ऊंच-नीच का कोई प्रश्न नहीं, वहां वर्ण या जाति गत भिन्नता का भी कोई महत्त्व नहीं । कर्म का सुदर्शनचक्र हर जीव पर बराबर चलता रहता है । कर्म जड़ शक्ति का नाम है, यह चेतना शक्ति को ऐसे ही घेरे रहती है। जैसे मदिरा पीने वाले को मदिरा मोहित बनाए रखती है । गौ का बछड़ा जैसे अपनी मां के पीछे जाता है, ठीक वैसे ही कर्म भी आत्मा के पीछे-पीछे रहता है । दुनिया में कोई भी ऐसा स्थान नहीं जहां छिपकर मनुष्य अपने पाप कर्मों से बच सके । इस के अतिरिक्त मानव-जीवन में अमावस की रात्रि कर्मों के प्रभाव से ही आती है और पूर्णिमा की घड़ी कर्मों को दूर करने पर ही उपलब्ध होती है । कितनी विचित्र बात है कि मनुष्य हजारों माइल दूर के सूर्य को केतु से मुक्त करने के लिए दान पुण्य करता है किन्तु अनन्त सूर्यो के सूर्य अपने आत्मदेव को कर्मों के केतु से मुक्त कराने का इसे कभी विचार ही नहीं आता । भगवान महावीर का कहना है कि ईश्वर और जीव में केवल कर्मों का ही परदा पड़ा हुआ है जो एक दुसरे को एक दूसरे से अलग रख रहा है । वेदान्त इस परदे को माया या अविद्या कहता । इसके हट जाने पर जीव में और ईश्वर में कोई भेद नहीं रहता है ! तभी तो कहा है

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