Book Title: Dipmala Aur Bhagwan Mahavir
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 82
________________ ६५ ५.-- कोहो य माणो य अणिग्गहीया, __माया य लोभो य पवड्ढमाणा । . चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचन्ति मूलाई पुणब्भवस्स ॥१॥ (दश० अ०८-४०) अनिगृहीत क्रोध और मान, तथा प्रबर्द्धमान (बढ़ते हुए) माया और लोभ-ये चारों ही कुत्सित कषाय पुनर्जन्मरूपी संसार वृक्ष की जड़ों को सींचते हैं । ५१- कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो । माया मिताणि नासेइ, लोभो सव्वविणासणो ॥ (दश० अ०८-३८) क्रीध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है, और लोभ सभी सद्गुणों का नाश कर देता है। ५२- उवसमेण हरले कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायमज्जवभावेम, लोभं संतोसो जिणे ॥ (दश० अ०८-३६) शान्ति से क्रोध को मारे, नम्रता से अभिमान को जीते, सरलता से माया का नाश करे, और सन्तोष से लोभ को काबू में लाये । ५३-- जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड ढइ । दोमासकयं कज्ज, कोडीए वि न निहियं ॥ ( उत्तरा० अ० ८-१७)

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