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कम्मस्स ते तस्स उवेयकाले,
न बन्धवा बन्धवयं उवेन्ति ॥ ( उत्तरा० अ० ४-४)
संसारी मनुष्य अपने प्रिय कुटुम्बियों के लिये बुरे से बुरे भी पाप कर्म कर डालता है, पर जब उन के दुष्फल भोगने का समय आता है. तब अकेला ही दुःख भोगता है, कोई भी भाई-बन्धु उसका दुःख बंटाने वाला - सहायता पहुंचाने वाला नहीं होता ।
४५- दुमपत्तए पंडुयए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीविथं समयं गोयम ! मा पमाए || ( उत्तरा० अ० १०-१ ) जैसे वृक्ष का पत्ता पकड़ ऋतुकालिक रात्रि-समूह के बीत जाने के बाद पीला होकर गिर जाता है, वैसे ही मनुष्य जीवन नष्ट हो जाता है । इसलिए हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर |
४६ -- कुसग्गे जह सबिन्दुए, थोवं चिट्ठइ लभ्यमाणए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमाय ॥ ( उत्तरा० अ० १०-२ )
जैसे ओस की बृन्द कुशा की नोक पर थोड़ी देर तक ही ठहरी रहती है, उसी तरह मनुष्यों का जीवन भी अल्प हैशीघ्र ही नाश हो जाने वाला है । इसलिये हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर |
४७ -- इइ इत्तरियम्मि आऊए, जीवियए बहुपच्चवायए ।