Book Title: Dipmala Aur Bhagwan Mahavir
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 79
________________ कर, उसपर श्रद्धा लाता है और तदनुसार पुरुषार्था कर आस्रव रहित हो जाता है, वह अन्तरात्मा पर से कर्म-रज को झटक देता है। ४२- सोही उज्यभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिहइ । निव्वाणं परमं जाइ, घयसित व पावए ॥ ( उत्तरा० अ० ३-११) जो मनुष्य निष्कपट एवं स्मरल होता है, उसी की आत्मा शुद्ध होती है । और जिसको आत्मा शुद्ध होती है, उसी के पास धर्म ठहर सकता है । घी से सींची हुई अग्नि जिस प्रकार पूर्ण प्रकाश को पानी है, उसी प्रकार सरल और शुद्ध साधक ही निर्वाण को प्राप्त होता है। ४३- असंखयं जीवियमापमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं विनाणाहि मणे पमते, किं नु विहिंसा अजया गहिन्ति ॥ ( उत्तरा० अ०४-१) जीवन असंस्कृत है-अर्थात् एक बार टूट जाने के बाद फिर नहीं जुड़ता, अतः एक क्षण भी प्रमाद न करो। प्रमाद, हिंसा और असंयम में अमूल्य यौवनकाल बिता देने के बाद जब वृद्धावस्था आयेगी, तब तुम्हारी कौन रक्षा करेगा-तब किसकी शरण लोगे ?' यह खूब सोच-विचार लो। ४४- संसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्मं ।

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