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३८ - अवि पावपरिक्खेवी, अवि मित्तेसु कुप्पइ । सुप्पियस्साsवि मित्तस्स, रहे भासइ पावगं ॥ ३६ - पइरणवादी दुहिले, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे । संविभागी अचियते, अविरणीय चि बुच्चइ ॥
( उत्तरा० अ० ११-७-६ ) जो बार-बार क्रोध करता है, जिसका क्रोध शीघ्र ही शांत नहीं होता, जो मित्रता रखने वालों का भी तिरस्कार करता है, जो शास्त्र पढ़कर गर्ग करता है, जो दूसरों के दोषों को ही उखेड़ता रहता है, जो अपने मित्रों पर भी क्रुद्ध हो जाता है, जो अपने प्यारे से प्यारे मित्र की भी पीठ पीछे बुराई करता है, जो स्नेहीजनों से भी द्रोह रखता है, जो अहंकारी है, जो लोभी है, जो इन्द्रियनिग्रही नहीं, जो सबको अप्रिय है, वह अविनीत कहलाता है ।
४० - चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह
माणुसतं सुई सद्धा,
जन्तुणो ।
संजमम्मिय वीरियं ॥
( उत्तरा० ० ३ -१ )
संसार में जीवों को इन चार श्रेष्ठ अंगों (जीवन - विकास के साधन) का प्राप्त होना बड़ा दुर्लभ है
मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा और संयम में पुरुषार्थ । ४१ - माणुसम्म आया, जो धम्मं सोच्च सहे । तवस्सी वीरियं लड्डु, संबुडे निद्धुणे रयं ॥
( उत्तरा० अ० ३-११ ) परन्तु जो तपस्वी मनुष्यत्व को पाकर, सद्धर्म का श्रव