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विहुणाहि रयं पुरेकडं, समयं गोयम ! मा पायए ।
(उत्तरा० अ०१८-३) अनेक प्रकार के विघ्नों से युक्त अत्यन्त अल्प आयु वाले इस मानव-जीवन में पूर्व संचित कर्मों की धूल को पूरी तरह पटक दे । इसके लिए हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर । ४८- दुल्लहे खलु माणुसे भवे,
चिरकालैण वि सव्व पापिणं । गाढा या विवाग कम्मुणो, समयं गोयम ! मा पमायए ॥
( उत्तरा० अ० १०-४) इसलिए दीर्घकाल के बाद भी प्राणियों को मनुष्य-जन्म का मिलना बड़ा दुर्लभ है, क्योंकि कृत कर्मों के विपाक अत्यन्त प्रगाढ़ होते हैं । हे गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न कर । ४६-- रागो य दोसो वि य कम्मबीयं,
कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति । कम्मं च जाइमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाइमरणं वयन्ति ॥
( उत्तरा० अ० ३२-७) राग और द्वेष-दोनों कर्म के बीज हैं-अतः कर्म का उत्पादक मोह ही माना गया है । कर्म सिद्धान्त के अनुभवी लोग कहते हैं कि संसार में जन्म मरण का मूल कर्म है, और जन्म मरण-यही एक मात्र दुःख है।