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नं कायं माणसियं च किंचि, तस्सऽन्तगं गच्छइ वीयरागो ॥
(उत्तरा० अ० ३२-१६) देवताओं-सहित समस्त संसार के दुःख का मूल एक मात्र काम भोगों की वासना है . जो साधक इस सम्बन्ध में वीतराग हो जाता है, वह शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःखों से छूट जाता है। २७- देवदाणवगन्धव्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा । बंभयारि नमंसन्ति, दुक्करं जे करेन्ति ते ॥
(उत्तरा० १६-१६) जो मनुष्य इस भाँति दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे देव, दानव गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सब देव नमस्कार करते हैं। २८- अत्थंगयंमि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए । आहारमाइयं सच्वं, मणसा वि न पत्थऐ ॥
( दश० अ०८-२८) सूर्य के उदय होने से पहले और सूर्य के अस्त हो जोने के वाद निग्रन्थ मुनि को सभी प्रकार के भोजन-पान आदि की मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिए। २६- सन्तिमे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा । जाई राम्रो अपासंतो, कहमेसणियं चरे ॥
(दश० अ०६-२४ ) संसार में बहुत से त्रस और स्थावर प्राणी बड़े ही सूदन