Book Title: Dipmala Aur Bhagwan Mahavir
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 73
________________ ." आत्मार्थी साधक को दृष्ट (सत्य), परिमित, असंदिग्ध, परिपूर्ण, स्पष्ट, अनुभूत, वाचालता-रहित, और किसी को भी उद्विग्न न करने वाली वाणी बोलनी चाहिए । २०- तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी । " सच्चा वि सा न वत्तव्या, जो पावस्स आगमो॥ (दश० अ० ७-११) जो भाषा कठोर हो, दूसरों को दुःख पहुंचाने वाली हो, वह सत्य भी क्यों न हो, नहीं बोलनी चाहिये। क्योंकि उससे पाप का आस्रव होता है। २१- चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । .: दन्तसोहणमित्तं पि, उग्गहं से अजाइया । २२- तं अप्पणा न गिएहंति, नो वि गिराहावए परं । अन्नं वा गिएहमाणं पि, नाणुजाणंति संजया ॥ (दश० अ०६-१४, १५) सचेतन पदार्थ हो या अचेतन, अल्पमूल्य पदार्थ हो या बहुमूल्य, और तो क्या, दांत कुरेदने की सींक भी जिस गृहस्थ के अधिकार में हो उसकी आज्ञा के लिये बिना पूर्ण संयमी साधक न तो स्वयं ग्रहण करते हैं, न दूसरों को ग्रहण करने के लिये प्रोरित करते हैं, और न ग्रहण करने वालों का अनुमोदन ही करते हैं । २३- विरई अबंभचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा । . उग्गं महव्वयं बंभं, धारेयव्वं सुदुक्करं ॥ ( उत्तरा० अ० १६-२८)

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