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काम भोगों का रस जान लेने वाले के लिए अब्रह्मचर्य से विरक्त होना और उग्र ब्रह्मचर्य महाव्रत का धारण करना, बड़ा ही कठिन कार्य है। असणं चेव अपत्थणं च, अचिंतणं व अकित्तणं च । इत्थीजणस्साऽऽरियज्माणजुग्गं,हियं सया बंभवए रयाणं ।।
__ (उत्तरा० अ० ३२-१५) स्त्रियों को रागपूर्वक देखना, उनकी अभिलाषा करना, उनका चिन्तन करना, उनका कीर्तन करना, आदि ब्रह्मचारी पुरुष को कदापि नहीं करने चाहिएँ । ब्रह्मचर्य व्रत में सदा रत रहने की इच्छा रखने वाले पुरुषों के लिए यह नियम अत्यन्त हितकर हैं, और उत्तम ध्यान प्राप्त करने में सहायक हैं। २५- जहा दवग्गी पउरिन्धणे वणे,
समारोनोवसमं उवेइ । एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हियोय कस्सइ ॥
( उत्तरा० अ० ३२.-११) जैले बहुत ज्यादा ईन्धन वाले जंगल में पवन से उत्तेजित दावाग्नि शान्त नहीं होती, उसी तरह मर्यादा से अधिक भोजन करने बाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि भी शांत नहीं होती। अधिक भोजन किसी को भी हितकर नहीं होता । २६- कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं,
सव्यस्स लोगस्स सदेवगस्त ।