Book Title: Dipmala Aur Bhagwan Mahavir
Author(s): Gyanmuni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 72
________________ ५५ १६- एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंधणं । अहिंसा--समयं चेव, एयावन्तं वियाणिया ॥ (सूयगडांग सूत्र अ० ११-१०) ज्ञानी होने का सार ही यह है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। 'अहिंसा का सिद्धान्त ही सर्वोपरि है'-मात्र इतना ही विज्ञान है। १७– समया सव्वभूएसु. सत्तु-मित्तेसु वा जगे । पाणाइवायविरई, जाबज्जीवाए दुक्करं ॥ (उत्तरा० अ० १६-२५) __ संसार में प्रत्येक प्राणी के प्रति, फिर भले ही वह शत्रु हो या मित्र-समभाव रखना, तथा जीवन-पर्यन्त छोटी-मोटी सभी प्रकार की हिंसा का त्याग करना-वास्तव में बड़ा ही दुष्कर है । १८- अप्पणहा परहा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुसं बूया, नो वि अन्नं वयावए ॥ ( दश० अ० ६-१२) अपने स्वार्थ के लिये अथवा दूसरों के लिए, क्रोध से अथवा भय से-किसी भी प्रसंग पर दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाला असत्य वचन न तो स्वयं बोले, न दूसरों से बुलवाए। १६- दिट्ठ मियं असंदिद्धं, पडिपुण्णं वियं जियं । अयंपिरमणुव्विग्गं, भासं निसिर अत्तरं ॥ ( दश० अ०८-४६)

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